चले थे दोस्त बनाने और खरीद रहे हैं दुश्मन
BRI समझौता आम तौर पर अपारदर्शी होते हैं और शर्तें गुप्त होती हैं। वे आम तौर पर उच्च-ब्याज दरों के साथ वाणिज्यिक शर्तें रखते हैं। विश्व बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री इंदरमीत गिल कहते हैं कि ऋण संकट इतना बुरा है कि इससे राहत के लिए और अधिक कर्ज से बात नहीं बनने वाली है। ऐसे मामले में राइट-ऑफ की आवश्यकता है ( कर्ज की वसूली नहीं होने पर उस लोन के खाते को नॉन परफॉर्मिंग एसेट यानी एनपीए मान लिया जाता है। एनपीए की वसूली न होने पर ऐसे कर्ज को बट्टे खाते में डाल दिया जाता है) पश्चिमी कर्जदाता इस मामले में सुनने को तैयार हैं लेकिन चीन नहीं। चीन का दावा है कि उसने कम ब्याज दरों पर पुनर्भुगतान अवधि बढ़ाने, या भविष्य की कमोडिटी बिक्री के माध्यम से भुगतान स्वीकार करने पर ध्यान केंद्रित किया है।
चीन ने राइट-ऑफ का कड़ा विरोध किया है। चीन की जो पॉलिसी है उससे पाकिस्तान सहित ऐसे देशों में हालात और भी बदतर बना दिया है। BRI आज चीन के वित्तीय स्थिति को भी प्रभावित कर रहा है। उधार लेने वाले वैसे कर्जदाताओं से प्यार करते हैं जो कुछ शर्तों के साथ बड़े पैमाने पर उधार देते हैं। BRI ने एक बार चीन को दोस्त बनाने में मदद की थी। लेकिन वही कर्जदार राइट-ऑफ का विरोध करता है। यही वजह है कि BRI आज दुश्मनी खरीद रहा है।
ऐसा बुलबुला तैयार जो फटने को है तैयार
भारत ने BRI की आलोचना की है और कहा है कि यह कर्जदारों को कर्ज के जाल में फंसाता है। चीन का कुल ऋण तीसरी दुनिया के कुल ऋण का छोटा हिस्सा है इसलिए इसे पूरे ऋण संकट के लिए जिम्मेदार तो नहीं ठहराया जा सकता है। लेकिन यह श्रीलंका मामले में दोषी है। कई बीआरआई परियोजनाएं- जैसे चीन से यूरोप तक रेलवे कुछ बड़ी सफलताएं भी हैं। हालांकि उधार देने के दबाव ने अक्सर ऋण देने के मानकों को प्रभावित किया है। चीन के नागरिक पर्याप्त खर्च नहीं करते हैं, जिससे सकल घरेलू उत्पाद की 46% की बड़ी बचत दर जो इसकी निवेश आवश्यकताओं से अधिक है। चीन ने इस बचत को रियल एस्टेट में लगाने की कोशिश की है, लेकिन एक ऐसा बुलबुला तैयार किया है जो फटने के लिए तैयार है।
कर्ज लेने का मतलब चीन से प्यार नहीं, भारत के लिए भी सबक
चीन ने बड़े पैमाने पर विदेशों में बुनियादी ढांचा परियोजनाओं को फंड करने का फैसला किया। इसके लिए सरप्लस फंड का उपयोग किया। इस प्रकार बीआरआई का जन्म हुआ लेकिन सभी अच्छी चीजों का अंत होता है। BRI से भारत के लिए सीख और सबक है। पहला सबक इस बात की ज्यादा चिंता न करें कि BRI से चीन को अधिक दोस्त बनेंगे। स्वतंत्रता के दशकों बाद तक भारत को विदेशी सहायता से प्यार था लेकिन अमेरिका और अन्य दानदाताओं से प्यार नहीं था। इसी तरह तीसरी दुनिया के उधार लेने वाले देशों को कर्ज से प्यार है लेकिन इसका मतलब चीन के लिए प्यार नहीं है।
दूसरा सबक यह है कि सहायता की होड़ में सावधानी बरतने की जरूरत है। भारत अभी भी एक गरीब देश है। ऐसे देश के लिए विदेश में उधार देना जोखिम भरा है और इसे सीमित पैमाने पर सावधानीपूर्वक किया जाना चाहिए। भारत को संकटग्रस्त पड़ोसियों (श्रीलंका), या सुनामी (इंडोनेशिया) और भूकंप (सीरिया और तुर्की) से प्रभावित लोगों को सीमितसहायता प्रदान करनी चाहिए। सैद्धांतिक तौर पर भारत को अपने बीआरआई का सपना नहीं देखना चाहिए।
तीसरा, भारत को विदेशी कर्ज देने से पहले कड़े होमवर्क की जरूरत है। न केवल परियोजनाओं बल्कि उधार लेने वालों के रवैये उसकी मेहनत का पता लगाने की भी जरूरत है। व्यावसायिक संभावनाओं की उपेक्षा कर केवल मित्र खरीदने वाली ऐसी किसी भी सोच पर विचार की जरूरत है।