नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने कुछ दिन पहले ही अनुच्छेद 142 के तहत मिले विशेषाधिकारों का इस्तेमाल करते हुए एक बड़ा फैसला दिया। SC की संविधान पीठ ने कहा कि एक समिति की सलाह पर राष्ट्रपति मुख्य चुनाव आयुक्त (CEC) और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति करेंगे। समिति में प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता और देश के चीफ जस्टिस (CJI) शामिल होंगे। जस्टिस के एम जोसेफ की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से यह फैसला दिया और यह भी कहा कि तब तक नियम बना रहेगा जब तक संसद कानून नहीं बना देती है। अगर लोकसभा में कोई नेता प्रतिपक्ष नहीं हैं तो सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता को समिति में शामिल किया जाएगा। हमारे सहयोगी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया के वरिष्ठ पत्रकार और लंबे समय से सुप्रीम कोर्ट से रिपोर्टिंग करने वाले धनंजय महापात्रा ने इसी मसले पर एक लेख लिखा है। वह लिखते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने CEC और चुनाव आयुक्तों की नई सिलेक्शन प्रक्रिया को लेकर वर्चुअल तरीके से कानून बना दिया। निर्वाचन आयोग के स्वतंत्र एवं निष्पक्ष तरीके से चुनाव कराने की अपनी संवैधानिक भूमिका का निर्वहन करने के लिए ऐसा किया गया। हालांकि महापात्रा ने सुप्रीम कोर्ट के सामने जजों की ईमानदारी और कॉलेजियम सिस्टम से नियुक्ति को लेकर कई सवाल भी खड़े किए हैं।
मीडिया पर सुप्रीम कोर्ट ने उठाया सवाल
फैसले में जस्टिस केएम जोसेफ की अगुआई वाली पांच जजों की संविधान पीठ ने याचिकाकर्ताओं की दलीलों, ‘हिंदू’ अखबार की 2012 की एक रिपोर्ट और पूर्व SC जज मदन बी लोकुर की अध्यक्षता वाली ‘सिटीजंस कमीशंस ऑन इलेक्शंस’ की रिपोर्ट पर भरोसा जताते हुए मीडिया के खिलाफ टिप्पणी की। जस्टिस लोकुर के अलावा रिपोर्ट बनाने वालों में पूर्व पीएम इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के करीबी पूर्व आईएएस अधिकारी, पूर्व सीआईसी वजाहत हबीबुल्लाह भी थे।
तीन कारणों से मीडिया के खिलाफ प्रतिकूल टिप्पणी की गई- यह देश के लिए विनाशकारी हो सकता है क्योंकि मीडिया (नागरिकों के अधिकारों का संरक्षक) का एक वर्ग चुनावी कदाचार के दोष की अनदेखी कर रहा है (पैराग्राफ 164); मीडिया के कुछ वर्ग बेशर्मी के साथ पक्षपात कर रहे हैं (पैराग्राफ 223); और तीसरा, चुनावों पर मीडिया के कुछ वर्गों के प्रभाव के कारण एक स्वतंत्र चुनाव आयोग की जरूरत है (पैराग्राफ 225)।
सुप्रीम कोर्ट क्या है?
महापात्रा लिखते हैं कि सुप्रीम कोर्ट संविधान के तहत ‘कोर्ट ऑफ रेकॉर्ड’ (अभिलेख न्यायालय) है। यह जांच परिणामों और स्पष्ट रूप से दस्तावेजों के निष्कर्षों को स्वीकार करता है। क्या किसी याचिकाकर्ता ने दस्तावेज या स्वतंत्र सर्वेक्षण पेश किए, जिसमें प्रत्येक अखबार, टीवी चैनल और वेब न्यूज पोर्टल की भूमिका का गहराई से विश्लेषण किया गया था और उसमें यह निष्कर्ष निकला कि मीडिया का एक वर्ग पक्षपाती हो गया है और नागरिकों के अधिकारों के संरक्षक की अपनी भूमिका को भूल गया है? क्या इसके आधार पर अदालत इस निष्कर्ष पर पहुंची थी?
कोर्ट रिपोर्टिंग में लंबा अनुभव रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार ने लिखा है कि समाचार या लेख प्रकाशित करने में मीडिया की स्वतंत्रता और सत्यनिष्ठा पत्रकारों या स्तंभकारों की धारणा और चरित्र पर निर्भर करती है। संसद के बनाए गए कानूनों, सुप्रीम कोर्ट के फैसलों या चुनाव आयोग की आचार संहिता (दिशानिर्देशों) के जरिए पत्रकारों में इन गुणों को रेगुलेट करना मुश्किल है। हमने देखा है कि कैसे राजनीति, कॉर्पोरेट जगत और न्यायपालिका को प्रभावित करने के लिए नेता, कॉर्पोरेट मीडिया लॉबिस्ट बड़े पत्रकारों का इस्तेमाल करते हैं। देश के नागरिकों का न्यायपालिका पर अटूट विश्वास है। क्या इसका मतलब यह है कि वे इसके भीतर के अनैतिक तत्वों के बारे में नहीं जानते हैं?
क्या सुप्रीम कोर्ट को बूथ कैप्चरिंग नहीं पता थी?
आगे धनंजय महापात्रा बूथ कैप्चरिंग की शुरुआत का जिक्र करते हुए लिखते हैं कि तब सुप्रीम कोर्ट राजनीतिक अखाड़े की सच्चाई से अनजान था। बूथ कैप्चरिंग का पहला मामला 1957 में बिहार के बेगूसराय जिले के रचियारी मतदान केंद्र से सामने आया था। उसके बाद कई दशकों तक विरोधियों को हराने के लिए ताकतवर नेता बंदूक के दम पर यह हथकंडा अपनाते रहे। संसद ने भी मार्च 1989 तक का इंतजार किया, जब जन प्रतिनिधि अधिनियम में सेक्शन 58ए जोड़ा गया। इसके बाद ही चुनाव आयोग को बूथ कैप्चरिंग के मामले पता चलने पर चुनाव स्थगित या रद्द करने का अधिकार मिला।
वरिष्ठ पत्रकार आगे सवाल करते हैं कि क्या सुप्रीम कोर्ट नागरिकों को दो पूर्व चीफ जस्टिस के बयानों के आधार पर जजों की ईमानदारी और सत्यनिष्ठा के बारे में धारणा बनाने की इजाजत देगा? 22 दिसंबर 2002 को तत्कालीन सीजेआई एसपी भरूचा ने कहा था: ‘80% से अधिक जज ईमानदार (और भ्रष्ट नहीं) हैं।’ क्या उनका यह मतलब था कि 20% से थोड़ा कम बेईमान और भ्रष्ट हैं? संवैधानिक अदालतों में जजों की स्वीकृत संख्या को देखते हुए यह काफी चिंताजनक होगा।
महापात्रा आगे लिखते हैं कि नवंबर 2010 में तत्कालीन चीफ जस्टिस एसएच कपाड़िया ने कहा था, ‘मैं कोशिश करूंगा कि अगले दो साल में मेरे सीजेआई रहने के दौरान कॉलेजियम सिस्टम से अच्छे जजों की नियुक्ति की जाए।’ इससे क्या यह मायने निकाला जाए कि 2010 से पहले तक अदालतों में कॉलेजियम की सिफारिशों पर अच्छे जजों की नियुक्ति नहीं होती थी? ये धारणाएं खतरनाक हैं।