फिनलैंड का नैटो (नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन) में शामिल होना उभरते ग्लोबल ऑर्डर पर गहरी छाप डालने वाली घटना है। यूक्रेन पर रूसी हमले ने इस गठबंधन को नई सार्थकता दी है, जिसे शीतयुद्धोत्तर काल में अतीत का अवशेष माना जाने लगा था। फिनलैंड के राष्ट्रपति ने इस मौके पर कहा, ‘हर राष्ट्र अपनी सुरक्षा पुख्ता करना चाहता है, फिनलैंड भी वही कर रहा है। नैटो मेंबरशिप ने हमारी अंतरराष्ट्रीय स्थिति मजबूत बनाई है।’ इस घटना ने यह बात पूरी स्पष्टता से रेखांकित कर दी है कि हमारे इतिहास का सैन्य गुटनिरपेक्षता का दौर समाप्त हो गया है और एक नया दौर शुरू हो चुका है। नैटो की सीमा करीब 1300 किलोमीटर तो बढ़ ही चुकी है, स्वीडन भी इसमें शामिल होने का इंतजार कर रहा है।
उलटा पड़ा दांव
रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन ने यूक्रेन पर हमले की जिम्मेदारी पश्चिमी देशों और नैटो का विस्तार करने की उनकी कोशिशों पर डाली थी। उनकी दलील थी कि यूक्रेन के खिलाफ बल प्रयोग के जरिए वह दूसरे देशों के लिए एक लकीर खींच रहे हैं ताकि वे नैटो से दूर रहें। यूरोप में इतना बड़ा युद्ध शुरू करने का प्रमुख कारण उन्होंने यही बताया था। अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने तब कहा था कि वह यह कहने से खुद को नहीं रोक पा रहे हैं कि ‘शायद इसी बात के लिए आगे चलकर हम पूतिन का शुक्रिया अदा करें क्योंकि उन्होंने वही स्थिति समय से पहले ला दी है, जिसे रोकने का दावा वह कर रहे हैं।’
- इस बात पर काफी चर्चा होती रही है कि पिछले साल फरवरी में यूक्रेन पर हमला करने के बाद से जंग के मैदान में रूसी फौज को किस तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। पश्चिमी देशों के सहयोग की बदौलत यूक्रेन ने लगभग हर स्तर पर रूसियों के पसीने छुड़ा दिए हैं।
- लॉजिस्टिक्स से जुड़ी समस्याओं और कमांड व कंट्रोल से जुड़े मसलों ने भी रूसी फौज के प्रदर्शन को बुरी तरह प्रभावित किया है।
- अपनी मातृभूमि की रक्षा के संकल्प के साथ यूक्रेनी नागरिक हर कदम पर जान की बाजी लगाते हुए रूसियों को कड़ी टक्कर दे रहे हैं। उन्होंने जंग के मैदान में तो बढ़िया प्रदर्शन किया ही है, दुनिया में कई देशों का रुख अपनी ओर करने में भी काफी हद तक सफल रहे हैं।
- दूसरी ओर रूस मान कर चल रहा था कि कुछ दिनों नहीं तो हफ्तों के अंदर तो यूक्रेन को ध्वस्त कर देगा, वह बुरी तरह मात खाया दिख रहा है। इसीलिए रूस को परमाणु हथियारों की धमकी का सहारा लेना पड़ा।
एकजुट हुआ यूरोप
रूस के लिए असली चुनौती सामरिक स्तर पर है। रूसी हमले ने एक झटके में न केवल पश्चिम को एकजुट कर दिया बल्कि उसे दूसरे विश्व युद्ध के बाद की अपनी सुरक्षा व्यवस्था पर फिर से विचार करने को भी मजबूर किया। जर्मनी जैसे देश के लिए भी यह घटना सामरिक नजरिए से महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुई। नैटो एक तरह से जैसे पुनर्जीवित हो गया और फिनलैंड, स्वीडन जैसे पारंपरिक तौर पर गुटनिरपेक्ष देश भी अपने लंबे समय से चले आ रहे रुख पर पुनर्विचार करने को मजबूर हुए। फिनलैंड में नैटो में शामिल होने के सवाल पर लोगों का समर्थन 80 फीसदी तक पहुंच गया, जिससे स्वाभाविक ही नीति निर्माताओं के लिए फैसला करना आसान हो गया।
- रूस के लिए इसका मतलब होगा चीन से और ज्यादा करीबी, लेकिन उसके जूनियर पार्टनर के रूप में। चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग के सामने पूतिन की जूनियर पार्टनर की हैसियत तभी स्पष्ट हो गई थी, जब चिनफिंग हाल में रूस के दौरे पर आए थे।
- दोनों देशों ने ‘प्रायॉरिटी पार्टनर्स’ के तौर पर संयुक्त वक्तव्य में संकल्प लिया कि क्षेत्रीय अखंडता के सवाल पर एक-दूसरे का समर्थन करेंगे।
- क्वॉड जैसे उभरते गठबंधनों के मद्देनजर दोनों ने एशिया-पैसिफिक में अपना-अपना ब्लॉक बनाने की मानसिकता का विरोध किया और इसकी जगह पर ऐसा सिक्यॉरिटी सिस्टम बनाने का संकल्प लिया, जो समान और सबके लिए खुला होगा। ‘बराबरी वाली पार्टनरशिप’ जैसे जुमलों के पीछे की हकीकत यह देखने पर साफ हो जाती है कि इस वक्त किसे किसकी जरूरत है।
हाल ही में जारी विदेश नीति की रणनीति में रूस ने चीन और भारत को मित्र राष्ट्र के रूप में रेखांकित किया है। आज जब वह पश्चिमी देशों से घिरा हुआ है, तब वह भारत से सहयोग बढ़ाना चाहता है। लेकिन रूस जो भी चाहे, सचाई यह है कि दोनों देशों के रिश्तों में कई स्तरों पर चुनौतियां बढ़ रही हैं।
- अव्वल तो रूस और चीन के बीच समझौते से भारत में आशंका पैदा हुई है।
- भारत और रूस के बीच के रक्षा संबंधों में आ रही मुश्किलों का अंदाजा इस बात से भी होता है कि भारतीय वायुसेना ने सार्वजनिक तौर पर कह दिया कि यूक्रेन युद्ध की वजह से मॉस्को भारत को जरूरी रक्षा सप्लाई मुहैया कराने का वादा पूरा करने की स्थिति में नहीं है। जाहिर है, सीमा पर चीन के साथ तनाव को देखते हुए भारत इस स्थिति को ज्यादा समय तक स्वीकार नहीं कर सकता।
- वैसे सच यह भी है कि भारत, रूस से अपने रिश्तों को प्रभावित नहीं होने देना चाहेगा। लेकिन हालात तेजी से बदलते जा रहे हैं और भारत को हथियारों के लिए कोई वैकल्पिक ठिकाना तलाशना होगा।
बुनियादी संरचना में बदलाव
साफ है कि यूरोप की सुरक्षा संरचना को आकार देने वाले बुनियादी कारकों में बदलाव आ रहा है और उनका प्रभाव भारत की विदेश नीति पर भी पड़ रहा है। रूस के साथ भारत के रिश्ते भी इससे अप्रभावित नहीं रह सकते। भारत यही उम्मीद कर रहा है कि सब कुछ ठीक रहे, लेकिन उसे बुरे नतीजों के लिए भी तैयार रहना चाहिए।