चीन ताबड़तोड़ नामकरण अभियान में लगा है। जहां-जहां ताकत काम नहीं आई वहां का नाम बदल दो। अब भला दिल्ली का नाम मंडारिन में लिख देने से ये चीन का तो हो नहीं जाएगा। लेकिन ये उसके साइको वारफेयर का हिस्सा है। 15 जून 2020 के दिन गलवान में ताकत के बल पर हमारी जमीन में घुसने की कोशिश का क्या हश्र हुआ ये चीन जानता है। लेकिन पीपुल्स लिबरेशन आर्मी आदत से बाज नहीं आती। दरअसल शी जिनपिंग की तानाशाही के कारण चीन के भीतर के हालात जब भी खराब होते हैं पीपुल्स लिबरेशन आर्मी को ध्यान भटकाने की जिम्मेदारी दी जाती है। इसीलिए उत्तरी सेक्टर में गलवान से नहीं सीखे तो नौ दिसंबर 2022 के दिन ईस्टर्न सेक्टर में एक बार फिर हिमाकत की। लेकिन अरुणाचल के तवांग में फिर मुंह की खानी पड़ी। हमारे गिने चुने जवानों ने पीएलए के 300 जवानों को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया। और ये हम सबको पता है कि 2020 से 22 के बीच कोरोना वायरस से चीन हलकान था और शी जिनपिंग जनता की उबाल कहीं और से शांत करना चाहते थे। लेकिन वो समझ नहीं पाया कि 2017 में महीनों तक डोकलाम में चीन के खिलाफ डटने के बाद हमारी तैयारी ईस्टर्न सेक्टर में मुकम्मल है। जोर जबरदस्ती नहीं चलती तो अरुणाचल की नदियों, पहाड़ों और गांवों के नाम चीन बदलता रहता है। अभी अमित शाह के जाने से पहले यही हुआ। उसने 11 इलाकों के नाम बदल दिए और पूरे अरुणाचल पर अपने दावे को दोहरा दिया। 2006 में चीनी राजदूत ने इस आग को हवा दी थी और 90,000 किलोमीटर यानी पूरे अरुणाचल को चीन का हिस्सा बताया था। अब अमित शाह के जाने के बाद चीनी विदेश मंत्रालय अरुणाचल को Zangnan यानी तिब्बत ऑटोनमस रीजन का हिस्सा बताते हुए उबल पड़ा। शाह की यात्रा को भड़काऊ बताया। उधर अमित शाह ने साफ सुना दिया कि .. ताकत के बल पर सुई भर जमीन कोई हमसे नहीं छीन सकता।
चीन की बेचैनी
चीन ईस्टर्न सेक्टर में बॉर्डर पोस्ट तक सड़क बना चुका है। अब हम सुरंग खोद टैंक पहुंचा रहे तो उसकी सुलग रही है। मोदी सरकार आने के बाद चीन ज्यादा बेचैन है। पहले हम बॉर्डर तक सड़कों का जाल बिछाने में सुस्त थे और सारी तैयारी सीमा पार से हो रही थी। अब गेम बदल गया है। सेला टनल का काम गोली की रफ्तार से चल रहा है। 3000 मीटर की ऊंचाई पर बन रही सुरंग के बनने के बाद गुवाहाटी और तवांग के बीच ऑल वेदर कनेक्टिविटी होगी। दो लेन के इस सुरंग से इंडियन आर्मी को सारे लॉजिस्टिक मिल जाएंगे जो चीन की किसी हिमाकत को ध्वस्त कर सकते हैं। तस्वीरों से साफ है कि इंतजार लंबा नहीं है। अप्रैल तक ये सुरंग खोल दी जाएगी। इसलिए नाम बदलने का पैंतरा चीन तेजी से कर रहा है। ये पहली बार नहीं है। 2017 में भी हमारे हिस्से के उन इलाकों के नाम चीन ने बदल दिए जो खोजने से भी नहीं मिलते। इस बार तो नरेंद्र मोदी ने एक महीने में दोहरा वार किया है। पहला वार कूटनीतिक था। अरुणाचल की राजधानी में जी-20 की तैयारियों के लिए मीटिंग करना। बीजिंग कसमसा कर रह गया। दूसरा, वाइब्रैंट विलेज प्रोग्राम की शुरुआत करना जिसके लिए अमित शाह वहां गए थे। हमने किबिथू गांव को भी इसके लिए चुना है जो वास्तविक नियंत्रण रेखा से 15 किलोमीटर और भारत-चीन-म्यांमार टाई जंक्शन से महज 40 किलोमीटर दूर है। गांव मजबूत होंगे तो हमारे जवानों को कितनी मदद मिलेगी ये समझना मुश्किल नहीं है।
सीमा पर रार की कहानी
जब कम्युनिस्टों चीन की सत्ता पर नियंत्रण किया तो सभी अंतरराष्ट्रीय करारों को एकतरफा होने के कान पर तोड़ दिया। चीन के साथ हमारी सीमा का निर्धारण सही तरीके से हुआ ही नहीं था। 1960 में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के पोलित ब्यूरो ने इसके लिए बातचीत की पहल की। इसी साल झाउ एन लाई और नेहरू के बीच संपर्क बना। बातचीत शुरू हुई। लेकिन 1962 में चीन ने पंचशील को तार-तार करते हुए हमारी पीठ में छुरा भोंक दिया। वास्तविक नियंत्रण रेखा वो लाइन है जहां तक दोनों देशों की आर्मी का नियंत्रण है। 3488 किलोमीटर लंबी सीमा तीन सेक्टरों में बंटी है- ईस्टर्न सेक्टर, मिडल सेक्टर और वेस्टर्न सेक्टर। चीन का दावा है कि भारत के साथ सीमा की लंबाई सिर्फ 2000 किलोमीटर है। पूर्वी सेक्टर का अलाइनमेंट मैकमोहन लाइन के साथ है। 1914 में ग्रेट ब्रिटेन, चीन और तिब्बत के बीच शिमला समझौता हुआ था। 890 किलोमीटर बॉर्डर को ब्रिटिश इंडिया और तिब्बत के बीच बांटने का काम सर हेनरी मैकमोहन ने किया। तवांग को ब्रिटिश इंडिया में माना गया। लेकिन चीन ने इसे गलत मानता है।
बीजिंग में राव
जाने माने नौकरशाह श्याम शरण ने अपनी किताब How India Sees the World में लिखा है कि जब चीन के पीएम ली पेंग 1991 में दिल्ली आए तो वास्तविक नियंत्रण रेखा पर बात हुई। फिर नरसिंह राव 1993 में बीजिंग गए। तब सीमा पर शांति के लिए ऐतिहासिक समझौता भी हुआ। इस बीच 1962 में चीन के हमले के बाद जमीन पर हालात बदल गए थे। नरसिंह राव के दौर पर भी एलएसी के किस थ्योरी को माना जाए, इस पर सहमति नहीं बनी। बस एलएसी शब्द का इस्तेमाल होता रहा।
क्या है चीन का दावा?
चीन का नक्शा अरुणाचल को दक्षिण तिब्बत का हिस्सा बताता रहा है। इसी दावे के सहारे चीन ने 2017 में छह स्थानों के नाम बदल दिए, 2021 में 15 जगहों के नाम बदले और कुछ दिन पहले 11 नाम फिर बदल दिए। हमने आधिकारिक तौर पर चीन के इस नामकरण संस्कार को वाहियात हरकत करार दिया है। अरुणाचल हमारी मातृभूमि का अभिन्न हिस्सा है और रहेगा। दरअसल चीन की नजर तवांग पर है। 1962 के बाद पीएलए ने यहां पर पहली बड़ी हरकत 1986-87 में की थी। सुमदोरोंग चू इलाके में चीनी आर्मी की गुस्ताखी को जनरल के सुंदरजी ने नाकाम कर दिया था। तवांग के पास Yangzte पठार है जो 15 किलोमीटर लंबा और 10 किलोमीटर चौड़ा है। ये तवांग की सुरक्षा के लिए जरूरी है। यहां से हमारी आर्मी चीन के आर्मी पोजीशन पर हावी हो सकती है। तवांग छठे दलाई लामा की जन्मस्थली है। यही नहीं 14वें दलाई लामा जब चीन की प्रताड़ना से तंग आकर 1959 में भागे तो उन्होंने यहीं कदम रखा। क्या पता किसी अगले दलाई लामा का चयन भी तवांग से ही हो जाए। ये एक ऐसा धार्मिक चाबुक है जिसका असर चीन के भीतर तक हो सकता है।