भारत में लगभग हर साल चुनावी प्रक्रिया चलती रहती है। अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग समय पर विधानसभा और स्थानीय निकायों के चुनाव होते रहते हैं। इनमें लगने वाली आचार संहिता के चलते तकरीबन छह माह विकास कार्य ठप पड़ जाता है। पिछले दिनों संविधान दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अखिल भारतीय पीठासीन अधिकारी सम्मेलन में ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की व्यवस्था और एकल मतदाता सूची लागू करने की बात कही थी।
पहले हुए हैं एक साथ चुनाव
‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ का सिस्टम भारतीय चुनाव प्रक्रिया को नया स्वरूप दे सकता है। इसके जरिए लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ कराए जाने की संकल्पना है। वैसे भी आजादी के बाद वर्ष 1952, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ-साथ हो चुके हैं। वर्ष 1967 के बाद कई बार लोकसभा और विधानसभाएं अलग-अलग समय पर भंग होती रहीं, जिस कारण यह क्रम टूट गया। वहीं, लोकसभा और विधानसभा चुनाव के अलग-अलग होने से इस पर आने वाला खर्च भी बढ़ा। इसलिए ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ आज वक्त की मांग है। 1999 में विधि आयोग ने भी अपनी एक रिपोर्ट में इसका समर्थन किया था। इसके लिए संविधान और लोक प्रतिनिधि कानून में कुछ संशोधन करने की भी आवश्यकता बताई गई।
खजाने पर घटेगा बोझ
पिछले दिनों सदन में पेश संसदीय समिति की एक रिपोर्ट में कहा था कि अगर देश में एक ही बार में सभी प्रकार के चुनाव संपन्न किए जाएंगे, तो न केवल इससे सरकारी खजाने पर बोझ कम होगा, बल्कि राजनीतिक दलों का खर्च कम होने के साथ-साथ मानव संसाधन का भी अधिकतम उपयोग किया जा सकेगा। साथ ही, मतदान के प्रति मतदाताओं की जो उदासीनता बढ़ रही है, वह भी कम हो सकेगी। बता दें कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कई बार कह चुके हैं कि एक देश-एक चुनाव अब केवल चर्चा का विषय नहीं है, बल्कि यह भारत की सामयिक आवश्यकता भी है, क्योंकि देश में हर महीने कहीं न कहीं चुनाव हो रहे होते हैं।
विकास पर बढ़ेगा खर्च
एक देश-एक चुनाव से बार-बार चुनावों में खर्च होने वाली धनराशि बचेगी। इसका उपयोग शिक्षा, स्वास्थ्य और जल संकट निवारण आदि ऐसे कार्यों में हो पाएगा, जिससे लोगों के जीवन स्तर में बेहतरी आएगी। कई देशों ने विकास को गति देने के लिए एक देश-एक चुनाव की व्यवस्था अपना रखी है। 2009 के लोकसभा चुनाव में 1100 करोड़ रुपये, 2014 में चार हजार करोड़ रुपये खर्च हुए थे। पिछले लोकसभा चुनाव में लगभग छह हजार करोड़ का भारी खर्च हुआ। विधानसभा चुनावों में भी यही स्थिति रही है। साथ ही बार-बार चुनाव होने से लगने वाली आचारसंहिता से सभी प्रकार के विकास कार्य बाधित होते हैं।
बढ़ेगा सौहार्द
अगर एक साथ चुनाव होगा तो इन दुष्प्रभावों पर भी रोक लग सकेगी। लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ होने से आपसी सौहार्द बढ़ेगा, क्योंकि चुनाव में बार-बार ऐसे मुद्दे नहीं उठेंगे, जिनसे सामाजिक सद्भाव बिगड़ने का अंदेशा रहता है। इसके साथ ही स्थानीय निकायों के चुनाव को लेकर भी समय और धन का व्यय होता है। इसमें स्थानीय निकाय चुनाव और उनके खर्चों को जोड़ दिया जाए तो एक साथ चुनाव कराने के अनेक फायदे सामने आते दिख रहे हैं।
बंटी हुई राय
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भले लंबे समय से लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने पर जोर देते रहे हैं लेकिन इस मुद्दे पर राजनीतिक दलों की राय बंटी हुई रही है। पिछले साल जब एक संबंधित आयोग ने इस मसले पर राजनीतिक दलों से सलाह ली थी, तब कुछ दलों ने एक देश-एक चुनाव की सोच का समर्थन किया था, लेकिन कुछ अन्य इसके खिलाफ थे। अब समय आ गया है कि सभी राजनीतिक दलों को एक देश-एक चुनाव के मुद्दे पर सकारात्मक रुख लेकर चर्चा करनी चाहिए और इसे लागू कराने पर अपनी सहमति देनी चाहिए।