ये कहानी है एक मां की। मां ने खुद की सेहत का ख्याल नहीं रखा। पोषण की कमी से बेटा मानसिक दिव्यांग पैदा हुआ। मां ने इसे किस्मत को कोसने की बजाय अलग ही रास्ता चुना। हेल्थ वर्कर बनी और घर-घर जाकर बेटे को दिखाकर महिलाओं से कहने लगी- बहन ये देखो मेरी गलती का नतीजा। इसे तुम मत दोहराना। पढ़-सुनकर ये तरीका थोड़ा अजीब भले लगे, लेकिन आदिवासी इलाके में जहां साक्षरता कम है वहां ये कारगर साबित हो रहा है।
पढ़िए, अनोखे मिशन पर रोज घर से निकलने वाली इस मां की अनकही कहानी…
कहानी
की शुरुआत होती है साल 2004 से। शहडोल जिले के मिठौरी गांव की लक्ष्मी
राजपूत की शादी डिंडौरी जिले के गीधा गांव में हुई। तब लक्ष्मी की उम्र महज
18 साल थी। गांव में 8वीं तक ही स्कूल था। आगे की पढ़ाई के लिए गांव से
बाहर जाना पड़ता। घर वालों ने मना कर दिया, इसलिए लक्ष्मी 8वीं तक ही पढ़
सकीं।
ससुराल आईं तो पति राजेश से पढ़ने की इच्छा जताई। पति ने साथ दिया। 2005 में दसवीं की परीक्षा पास कर ली। एक साल बाद ही 24 अक्टूबर 2006 को बेटी काजल का जन्म हुआ। परिवार में खुशियां ही खुशियां थीं। फिर 15 फरवरी 2008 को बेटे नयन का जन्म हुआ। खान-पान की कमी के कारण नयन जन्म से ही दिव्यांग पैदा हुआ। उस दिन को याद करते हुए लक्ष्मी भावुक हो जाती हैं। कहती हैं- डॉक्टर और नर्सों ने बहुत कोशिश की, लेकिन सामान्य बच्चे की तरह वो प्रतिक्रिया नहीं दे रहा था।
यहां से आगे की कहानी लक्ष्मी की जुबानी पढ़िए
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बरस पहले बेटे के साथ हुए इस वाकये ने मेरी जिंदगी बदल दी। मैं कम
पढ़ी-लिखी थी। कुपोषण जैसे शब्द सुने तो थे, लेकिन इससे क्या हो सकता है ये
समझ नहीं आता था। डॉक्टरों ने बताया कि मेरे पोषण में कमी के कारण बेटे का
मानसिक विकास नहीं हुआ। अब मेरे पास दो ही रास्ते थे- या तो मैं खुद को और
किस्मत को कोसते हुए जिंदगी बिता दूं या इस बात के लिए कोशिश करूं कि अब
किसी मां का बेटा ऐसा न हो।
मैंने दूसरा रास्ता चुना। मैंने सबसे पहले अपनी पढ़ाई पर ध्यान दिया। एएनएम की ट्रेनिंग के लिए 2010 में परिवार के साथ विदिशा चली गई। 2012 में व्यापमं की परीक्षा दी, लेकिन असफल रह गई। मायके शहडोल जाकर प्राइवेट हॉस्पिटल में नौकरी शुरू की। फिर व्यापमं की परीक्षा दी। फिर फेल हो गई। ‘परीक्षा’ मेरी बार-बार परीक्षा ले रही थी। इस बीच 2016 में मैंने 12वीं पास कर ली। आखिरकार 2021 में मैंने व्यापमं की परीक्षा पास कर ली।
स्वास्थ्य विभाग में एएनएम की नौकरी मिली। 18 अक्टूबर 2021 को बजाग ब्लॉक के जल्दा उपस्वास्थ्य केंद्र में नौकरी जॉइन कर ली, लेकिन मेरा मकसद नौकरी करना था ही नहीं। मेरी चिंता मांओं को लेकर थी। इसके बाद शुरू हुआ हेल्थ वर्कर के रूप में मेरा मिशन।
पहली चुनौती: डिलीवरी की समस्या
लक्ष्मी
बताती हैं, हमारे उपस्वास्थ्य केंद्र में जल्दा, बोना, सिंदूरखार,
पिपरिया, कथरिया टोला, खरारी टोला और मानगढ़ गांव आते हैं। यहां के गांव
वाले भी डिलीवरी के लिए महिलाओं को पड़ोस के इलाके बजाग के सामुदायिक
स्वास्थ्य केंद्र ले जाते थे। दूरी और दुर्गम इलाके के कारण इसमें खतरा
ज्यादा था। मैंने अफसरों से बात की। उन्होंने मंजूरी दे दी। मैंने
उपस्वास्थ्य केंद्र में ही डिलीवरी शुरू करा दी। क्रिटिकल केस ही बजाग या
डिंडौरी जिला मुख्यालय भेजती हूं।
दूसरी चुनौती: कुछ नहीं होता वाली मानसिकता
लक्ष्मी
के मुताबिक, इन गांवों में सबसे ज्यादा आबादी विशेष पिछड़ी जनजाति बैगा
आदिवासियों की है। महिलाओं की साक्षरता 50 फीसदी से भी कम है। कुपोषण की
खामियां समझाने जाओ तो कहती थीं- कुछ नहीं होता। मैं अपने बेटे नयन को साथ
लेकर जाने लगी। पति राजेश बाइक से हम दोनों को लेकर जाते हैं। पति-बेटे को
दूर खड़ा कर देती हूं और महिलाओं को बताती हूं कि वो देखो मेरा बेटा है।
मैंने खान-पान पर ध्यान नहीं दिया तो दिव्यांग पैदा हुआ। बहन तुम ऐसी गलती मत करो। धीरे-धीरे बोलती हूं, ताकि बेटे को सुनाई न दे और उसके मानसिक स्वास्थ्य पर और बुरा असर न पड़े। धीरे-धीरे महिलाओं को मेरी बात समझ आने लगी।
तीसरी चुनौती: गर्भावस्था में भी हाड़तोड़ काम
बैगा
महिलाएं गर्भावस्था के दौरान भी खेतों में हाड़तोड़ काम करती हैं। उन्हें
चेकअप के लिए भी बुलाना पड़ता है। वो नहीं आतीं तो मुझे ही उनके पास खेत तक
जाना पड़ता है। ऊबड़-खाबड़ सड़कें हैं। पति और बेटे को साथ में लेकर जाती हूं।
गर्भवती महिलाओं को खून की कमी न हो, इसलिए आयरन की गोलियां साथ रखती हूं।
खेत, खलिहान, घर जहां मिल जाती हैं, वहीं उनका चेकअप कर लेती हूं।
गांवों में लोग ‘मैडम’ के काम की इज्जत करते हैं
लक्ष्मी
की उपलब्धियों को लेकर हमने सरकारी रिकॉर्ड खंगाले तो पता चला एक साल में
उप स्वास्थ्य केंद्र जल्दा में 55 डिलीवरी हुई है। ये रिकॉर्ड किसी भी उप
स्वास्थ्य केंद्र के लिहाज से शानदार कहा जा सकता है। सिंदूरखार गांव की
मायावती मरावी लक्ष्मी को मैडम कहती हैं। मायावती बताती हैं कि मैडम सप्ताह
में दो बार गांव में आकर घर-घर गर्भवती महिलाओं का और प्रसव के बाद भी
जच्चा-बच्चा को देखने आती है। दवाइयां देती है, चेकअप करती हैं और जरूरी
सलाह देती है। अगर रात में कोई दिक्कत होती है तो मैडम आ जाती है। उनका
बेटा और पति भी साथ आते हैं। पिपरिया, कथरिया टोला गांव के लोगों ने भी यही
बातें दोहराई।
बेटे की बीमारी पर डॉक्टर की राय
जब इस तरह की मानसिक
दिव्यांगता के बारे में डॉक्टर सुनील जैन से पूछा तो उन्होंने बताया कि अगर
माता गर्भावस्था के दौरान ज्यादा कुपोषित हो, उसके शरीर में खून, कैल्शियम
की कमी हो या फिर उसने ट्रकसिक दवाइयों का सेवन किया हो या कीमीथैरेपी की
गई हो तो नवजात में इसका खतरा होता है। इसका पूरी तरह ठीक होना तो मुश्किल
है, लेकिन समय के साथ खान-पान और परिवेश से इसमें काफी सुधार हो सकता है।