बांका : बांका जिले की अमरपुर विधानसभा सीट फिलहाल जेडीयू के पास है। इस सीट का इतिहास हमेशा उलटफेर वाला रहा है। विधानसभा क्षेत्र में जातियों का समीकरण इतना मजबूत है कि कब पासा किसकी तरफ पलट जाए, सियासी जानकार भी अंदाजा नहीं लगा पाते। बांका जिला अपने पौराणिक मान्यताओं के लिए प्रसिद्ध है। जिले में स्थित मंदार पर्वत से संबंधित एक कथा ये भी है कि देवताओं ने अमृत प्राप्ति के लिए दैत्यों के साथ मंदार पर्वत से ही समुद्र मंथन किया। जिसमें हलाहल विष के साथ 14 रत्न निकले। मान्यता है कि इस पहाड़ से देवता और असुर दोनों ने मिलकर मथनी की तरह मंदार को मथ कर अमृत प्राप्त किया था। सावन के दिनों में पूरा बांका जिला महादेव की जयकार से गूंजता है। सावन में कांवरिये भगवान भोले के लिए जल लेकर बांका से गुजरते हैं। सुल्तानगंज से देवघर जाते वक्त बांका का ज्यादा हिस्सा महादेव के दर्शन वाले रास्ते में पड़ता है। राजनीतिक जानकार बांका जिले को सियासत का आध्यात्मिक स्थल भी कहते हैं। इस सीट पर हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं कि यहां का सियासी गणित उलझा हुआ है। स्थानीय जानकार बताते हैं कि 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर भी यहां काम नहीं कर पाया। इस सीट से जयप्रकाश नारायण यादव चुनाव जीत गए। बीजेपी के उम्मीदवार और पूर्व केंद्रीय मंत्री दिग्विजय सिंह की पत्नी पुतुल कुमार को हार का सामना करना पड़ा।
1957 में वजूद में आई अमरपुर सीट
बांका जिले की अमरपुर विधानसभा सीट और बांका लोकसभा सीट 1957 में वजूद में आई। ये सीट शुरू से कांग्रेसी और समाजवादी विचारधारा के लोगों के लिए मुफीद रही। यहां 1967 में यहां भारतीय जनसंघ के बीएस शर्मा को जीत मिली थी। उसके बाद आपात्तकाल के वाले दशक यानी सत्तर के दशक में 1971 से 1977 तक समाजवादी नेता और मानवतावादी चिंतक मधु लिमये सांसद चुने गए। उसके बाद 1998, 1999 और 2009 में जेडीयू नेता दिग्विजय सिंह को लोकसभा चुनाव में जीत मिली थी। दिग्विजय सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में केंद्रीय मंत्री भी रहे। सुल्तानगंज वैसे तो बांका लोकसभा क्षेत्र का हिस्सा है, लेकिन विधानसभा सीट के लिहाज से सुल्तानगंज भागलपुर जिले में पड़ता है। बांका लोकसभा क्षेत्र में विधानसभा की 6 सीटें आती हैं। उनमें सुल्तानगंज, अमरपुर, धोरैया, बांका, बेलहर और कटोरिया सीट शामिल है। बांका सीट का राजनीतिक समीकरण हमेशा जेडीयू के पक्ष में रहा। यहां स्व. दिग्विजय सिंह जैसे नेताओं का काफी समय तक वर्चस्व रहा।
जातीय समीकरण हावी
अमरपुर विधानसभा क्षेत्र में विकास के पहिये ज्यादा आगे नहीं खिसके। स्थानीय लोगों के मुताबिक जिले में तकनीकी कॉलेज और मेडिकल संस्थानों के निर्माण की मांग काफी समय से हो रही है। लोगों का कहना है कि पूरे बांका जिले और अमरपुर के इलाके में धान की खेती होती है। नहर की कमी की वजह से लोग सिंचाई नहीं कर पाते। लोगों में नाराजगी हमेशा रहती है। सियासी जानकार मानते हैं कि लोग विकास को लेकर नाराज जरूर रहते हैं, लेकिन वोट जातिगत आधार पर ही देते हैं। इलाके में रोजगार एक बहुत बड़ा सियासी मुद्दा है। जिले की साक्षरता दर इतनी कम है कि यहां शैक्षणिक संस्थानों का होना सबसे ज्यादा जरूरी है। पूरे बांका जिले की राजनीति पर नजर रखने वाले स्थानीय जानकार बताते हैं कि सियासी लिहाज से यहां गैर सरकारी आंकड़ों के मुताबिक जातियों की संख्या बंटी हुई है। सबसे ज्यादा यहां यादव तीन लाख हैं। मुस्लिम की जनसंख्या दो लाख के करीब है। गंगोता जाति के लोग तीस हजार हैं, कोइरी 80 हजार, कुर्मी-एक लाख, ब्राह्मण सवा लाख और भूमिहार वोटरों की संख्या 50 हजार है। राजपूत यहां जीत के लिए मुख्य फैक्टर साबित होते हैं। राजपूतों ने हमेशा जेडीयू के राज परिवार से आने वाले दिग्विजय सिंह को सपोर्ट किया। राजपूतों की संख्या डेढ़ लाख है। इस सीट पर कायस्थ 50 हजार हैं। मारवाड़ियों की संख्या बीस हजार है। वैश्य 2 लाख, महादलित ढाई लाख और अन्य वोटरों की संख्या एक लाख के करीब है।
महागठबंधन और बीजेपी में संघर्ष
उपरोक्त जातीय आंकड़े आपको साफ बता सकते हैं कि यहां की राजनीति किस मुद्दे को लेकर चलती है। अमरपुर विधानसभा सीट पर 2025 के विधानसभा चुनाव और 2024 के लोकसभा चुनाव में स्थिति अलग होगी। जातीय आधार पर बीजेपी और महागठबंधन के बीच सीधे संघर्ष की उम्मीद लगाई जा रही है। 2011 की जनगणना बताती है कि अमरपुर की जनसंख्या 4 लाख 661 है। 2019 की वोटर लिस्ट ये बताती है कि यहां की कमोवेश 94 फीसदी आबादी ग्रामीण इलाकों में और साढ़े छह फीसदी आबादी शहरी क्षेत्र में रहती है। 2019 के वोटर लिस्ट के आंकड़ों को देखें, तो अमरपुर विधानसभा सीट पर 2 लाख 89 हजार 171 वोटर हैं, जो उम्मीदवारों की किस्मत का फैसला करते हैं। अमरपुर में हुए विधानसभा के पिछले 2 चुनावों में जेडीयू विजयी रही है। स्थानीय जानकार बताते हैं कि अमरपुर में सिर्फ राजद ही एक ऐसी पार्टी रही, जो लगातार तीन चुनाव में जीती है। इस बार जेडीयू और राजद साथ हैं तो कयास लगाये जा रहे हैं कि ये सीट महागठबंधन के पाले में जाएगी। 2015 में महागठबंधन की ओर से जेडीयू के जनार्दन मांझी ने यहां से जीत हासिल की थी। स्थानीय जानकारों की मानें, तो एक बार फिर महागठबंधन और बीजेपी में लड़ाई होगी। एक तरफ सात दलों का गठबंधन होगा, जो अति-पिछड़ा, कोइरी, कुर्मी, यादव और मुस्लिम वोटों को प्रभावित करेगा। बीजेपी के हिस्से राजपूत, भूमिहार और कायस्थ के अलावा मारवाड़ी वोट होंगे। जानकारों की मानें, तो बीजेपी को पिछला रिकॉर्ड देखना होगा और उसके हिसाब से इस सीट पर उम्मीदवार उतारना होगा।
जेडीयू के कब्जे में सीट
सियासी जानकार बताते हैं कि 2020 के विधानसभा चुनाव में जेडीयू नेता और एनडीए के उम्मीदवार जयंत राज ने कांग्रेस के उम्मीदवार को हरा दिया था। फिलहाल इस सीट से जयंत राज जेडीयू के विधायक हैं। जानकारों की मानें, तो अब चूंकी महागठबंधन में कांग्रेस भी शामिल है। ये तय है कि अमरपुर सीट जेडीयू अपने पास रखेगी और 2020 में चुनाव हारने वाले जितेंद्र सिंह टिकट नहीं मिलने की स्थिति में बगावत पर उतारू हो जाएंगे। स्थानीय जानकारों के मुताबिक बीजेपी अपने पूर्व उम्मीदवार रहे मृणाल शेखर पर दांव लगा सकती है। ये भी हो सकता है कि पूर्व मंत्री रहे रामनारायण मंडल भी दावेदारी का दावा करें। स्थानीय जानकारों की मानें, तो जेडीयू के साथ रहने की वजह से बीजेपी यहां किसी मजबूत उम्मीदवार की नींव खड़ी नहीं कर पाई है। अमरपुर के लोगों की निगाहें आज भी महागठबंधन की ओर से खड़े किये जाने वाले उम्मीदवार पर टिकी रहेगी। स्थानीय पत्रकारों का आंकलन है कि इस बार लड़ाई दिलचस्प होगी, लेकिन ये भी तय है कि फैक्टर जाति का ही काम करेगा। क्योंकि इस सीट पर कभी भी विकास और संस्थाओं के निर्माण का मुद्दा हावी नहीं रहा। जानकार बताते हैं कि विधानसभा और लोकसभा चुनाव के इतिहास पर नजर डालें, तो यहां का उलझा हुआ सियासी गणित आपको साफ नजर आएगा। अमरपुर में 2025 के विधानसभा चुनाव को लेकर अभी से कई नेता एक्टिव हैं। फिलहाल, 2025 में राजनीतिक समीकरण क्या बनेगी ये कहना मुश्किल है।