नई दिल्ली: देश के हर नागरिक को बजट से बड़ी आस होती है। हमारी सेनाएं इससे अलग नहीं हैं। रक्षा मंत्रालय की ओर से सेनाओं के लिए जो डिमांड रखी जाती है, अक्सर उससे कम ही रकम मिलती है। एक मिसाल इसी वित्त वर्ष की देखते हैं। जो प्रोजेक्शन रखा गया और जो पैसा मिला, उसमें करीब एक लाख करोड़ रुपए का अंतर था। जानकार मानते हैं कि इस साल भी यही ट्रेंड रह सकता है। रक्षा खर्च बढ़े, इससे किसी को इंकार नहीं हो सकता। कुछ लोग कहते हैं कि मौजूदा खर्च को करीब करीब डबल कर दिया जाए। इसे देश की GDP का तीन फीसदी हिस्सा होना चाहिए। अभी यह दो फीसदी है। अगर सुरक्षा हालात सामान्य होते तो बात ज्यादा चिंता की नहीं होती, लेकिन अक्सर दो मोर्चों पर जंग का खतरा उभर आता है। गलवान के बाद तवांग में चीनी सैनिकों के साथ हुई झड़प ने रिस्क बता दिया है। पाकिस्तान के इरादे भी किसी से छिपे नहीं हैं।
पेंशन का बोझ
हमारा रक्षा खर्च बढ़ रहा है। एक अनुमान के मुताबिक दुनिया में अमेरिका और चीन के बाद सबसे ज्यादा मिलिट्री खर्च भारत का है, लेकिन अमेरिका का खर्च भारत से 10 गुना ज्यादा है, जबकि चीन का चार गुना अधिक है। कम खर्च में अच्छी रक्षा तैयारी के लिए मेक इन इंडिया भी जरूरी है। रक्षा के मद में जो रकम मिलती है, उसका एक चौथाई से ज्यादा हिस्सा पेंशन में चला जाता है। सेनाओं को आधुनिक साजोसामान देने के लिए कम रकम बचती है। पेंशन का खर्च पिछले करीब 20 बरस में 10 गुना बढ़ गया है। हाल में वन रैंक वन पेंशन का दायरा भी बढ़ाया गया है।