तंवर ने फिर पाला बदला, जनहित में नहीं, अपने स्वार्थों के कारण कपड़ों की तरह पार्टी बदल रहे हैं नेता
■ओम माथुर■
इतनी जल्दी तो कोई अपना मकान तक नहीं बदलता,जितनी जल्दी नेता अपने स्वार्थ के लिए पार्टी बदल लेते हैं। एक पार्टी में रहकर दूसरी पार्टी को गाली देने वाले ऐसे नेताओं को दूसरी पार्टी भी गले लगाने में हिचकती नहीं है,बस उन्हें लगना चाहिए कि उस नेता के आने से पार्टी को वोटों का लाभ होगा। पिछले कुछ सालों से तो चुनावों से पहले पार्टियां बदलना कपड़े बदलने जैसा हो गया है। इसलिए हरियाणा में कल अशोक तंवर ने जो कुछ किया,वह चौंकाने वाला नहीं था। राजनीति में आयाराम गयाराम की बुराई देने वाले हरियाणा में भाजपा ने दलित समाज के वोट हासिल करने के लिए उन्हें गले लगाया था,लेकिन तंवर कल वापस अपना नया घर भाजपा छोड़कर पुराने घर कांग्रेस में घुस गए। 2019 में कांग्रेस छोड़ने के बाद वह तृणमूल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के घरों की भी सैर कर चुके थे, क्योंकि वह हरियाणा की राजनीति में बड़ा दलित चेहरा थे, इसलिए बार-बार दल बदलने के बाद भी हर पार्टी ने अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं से भी ज्यादा उन्हें सम्मान दिया।
तंवर युवा कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं हरियाणा प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष रहने के साथ ही कांग्रेस के सांसद रहे हैं। कल वो स्टार प्रचारक के रूप में नलवा में भाजपा प्रत्याशी के समर्थन में सभा करने के एक घटे बाद महेंद्रगढ़ में राहुल गांधी की सभा में पहुंचकर कांग्रेस में शामिल हो गए। तंवर का हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री और इस विधानसभा चुनाव में सबसे ज्यादा समर्थकों का टिकट दिलाने वाले भूपेंद्र सिंह हुड्डा से छत्तीस का आंकड़ा है। इन दोनों के समर्थकों में कई बार हरियाणा में आमने-सामने संघर्ष हो चुका है। इसी के चलते तंवर ने 2019 में कांग्रेस छोड़ दी थी। इसके बाद टीएमसी और आप में होते हुए इस साल उन्होंने लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा का दामन थाम और सिरसा से चुनाव लड़े। लेकिन कांग्रेस की दलित नेता शैलजा से हार गए। लेकिन तंवर को बीजेपी हरियाणा में अपने दलित नेता के रूप में पेश करती रही और उन्हें विधानसभा सभा चुनाव में स्टार प्रचारक बनाया। पिछले दिनों जब टिकट वितरण में कांग्रेस ने शैलजा की उपेक्षा की तो भाजपा ने इसे मुद्दा बनाया कि कांग्रेस दलितों की कदर नहीं करती है। ऐसे में तंवर का अचानक भाजपा का साथ छोड़ देना उसके इस प्रचार को भोंथरा कर गया।
तंवर के वापस कांग्रेस में आने से हरियाणा की राजनीति पर आने वाले समय में क्या असर होगा, यह अलग विषय है। लेकिन सवाल ये है कि ऐसे दलित नेता किस काम के जो सिर्फ अपने स्वार्थ और सुख के लिए दल बदलते रहते हैं। खुद तो सत्ता का मजा लेते रहते हैं। लेकिन अपने समाज के विकास के लिए शायद ही कुछ करते हो। फिर राजनीति में बड़े चेहरे बन गए दलित नेता दलित रहते भी कहां है। उनके पास सुख सुविधा,संपत्ति और ऐशोआराम के सब साधन होते हैं। उनके बच्चे बड़ी-बड़ी स्कूलों में या विदेशों में पढ़ते हैं। मनचाहा धंधा या नौकरी करते हैं। लेकिन चुनावी राजनीति में वह दलित बनकर अपने समाज का ही शोषण करते हैं। क्योंकि दलित समाज के सामाजिक और आर्थिक विकास की रफ्तार इन नेताओं के व्यक्तिगत विकास की रफ्तार के सामने कहीं नजर नहीं आती। अपने समाज के प्रति चिंता भी उनके भाषणों में ही दिखती है,हकीकत में होती नहीं। राजनीति में सत्ता के करीब आकर यह दलित नेता खुद तो सामान्य वर्ग के लोगों से भी ज्यादा सम्मान पाते हैं,लेकिन दलित देश में आज भी पिछड़ा और उपेक्षित ही है। जिसकी इन नेताओं को भी याद वोटों के लिए ही आती है।
तंवर को ही देख लीजिए। उनके पास करीब 7 करोड़ की घोषित संपत्ति है। खुद-पढ़े लिखे हैं और विवाह भी ब्राह्मण पंजाबी समाज में किया है। उनकी पत्नी पूर्व राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा के परिवार से है। यानी सामाजिक और आर्थिक रूप से कहीं भी दलित के दायरे में नहीं आते। लेकिन राजनीति और वोटों के लिए उनकी यही जाति हो जाती है। ऐसे ही एक दलित नेता अपने राजस्थान के उप मुख्यमंत्री प्रेमचंद बैरवा भी है। जिनकी घोषित संपत्ति करीब साढे़ पांच करोड़ रुपए है। जो अपने व्यक्तिगत कार्यकलापों के कारण अभी सुर्खियों में हैं। जिनका बेटा नाबालिग होते हुए भी परिवहन विभाग की सुरक्षा में रील बनाते हुए ठसके से जीप चलाता है। लेकिन जब मामला सामने आता है, तो वे खुद को बचाने के लिए इसी दलित कार्ड का इस्तेमाल करते हैं। यह कहते हुए की एक दलित को डिप्टी सीएम बनाने के बाद ही उनके बेटे को बड़ी गाड़ी में बैठना नसीब हो रहा है। स्वर्गीय रामविलास पासवान भी ऐसे ही दलित नेता थे, जो केंद्र में किसी भी पार्टी की सरकार हो हमेशा मंत्री के रूप में नजर आते थे। अब उनके बेटे चिराग पासवान दलितों के नाम को रोशन कर रहे हैं। अभी रामदास आठवाले भी पासवान की श्रेणी के ही नेता हैं। देश में ऐसे दलित नेता हर राज्य में मिल जाएंगे, जो अपने समुदाय के नाम पर राजनीति करके खुद तो फर्श से अर्श पर पहुंच गए हैं। लेकिन दलितों को फर्श पर ही अपना जीवन गुजारना पड़ रहा है। उनकी दुश्वारियां,दिक्कत है और परेशानियां ज्यों की त्यों हैं।
तंवर का दल बदलना राजनीति की इस सच्चाई से भी साक्षात्कार करवाता है कि अब इसमें विचारधारा, सिद्धांत और मूल्यों की कोई जरूरत नहीं है। सिर्फ मौकापरस्ती और वक्त को समझने की जरूरत है। तंवर को भी अब लगने लगा होगा कि हरियाणा में कांग्रेस सत्ता में लौटकर आ सकती है। ऐसे में उन्हें अब भाजपा में रहने से क्या लाभ? जब तक भाजपा राज्य में सत्ता में रही उसके साथ रहे,अब अपना भविष्य देख रहे हैं,तो इसमें उनकी गलती कहां है? आखिर दलित समुदाय के जो हैं।