आपने साउथ में भी काफी काम किया है। साउथ की फिल्मों को दर्शक पसंद कर रहे हैं, वहीं बॉलिवुड की गिनी-चुनी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर टिक पा रही हैं। आपको इसकी क्या वजह नजर आती है?
साउथ तो वैसे ही काम कर रहा है, जैसा वह पहले किया करता था। हम तो 2002 से उस इंडस्ट्री में काम करते आ रहे हैं। वह उस समय भी बेहतर काम कर रहे हैं। एसएस राजामौली की आज तक एक भी फिल्म फ्लॉप नहीं हुई है। वो आदमी अपना काम कर रहा है। हिंदी की समस्या ये है कि यहां एक क्राइसिस है। क्योंकि हिंदी में लोग जमीनी स्तर पर नहीं जुड़ पाते हैं, जमीन की कहानी नहीं कह पाते हैं। इसलिए वह कोई परी कथा जैसी नजर आती है। अगर आप साउथ की फिल्मों को देखेंगे तो उनकी हर फिल्म में जो चरित्र होता है, वो जमीन का होता है, भले ही वो कमर्शियल ही क्यों ना हो। ‘पुष्पा’ ही देख लीजिए, उसका लुक और बॉडी लैंग्वेज से लोग कनेक्ट करते हैं। उसकी बढ़ी हुई दाढ़ी, लुंगी का पहनना, स्टाइल आदि सब से लोग जुड़ाव महसूस करते हैं। हम भी अगर अपनी जमीन समझने लगें तो हम भी ठीक परफॉर्म करेंगे। जैसे हमने ‘गर्मी’ सीरीज में देखेंगे तो उसमें चरित्र हैं वो जमीन से जुड़े नजर आएंगे।
एक बेटा आईपीएस और एक ऐक्टिंग में, तो पैरंट्स का आपके करियर चॉइस को लेकर क्या कहना था?
शुरुआती दौर में पिताजी को लगता था कि ये ऐक्टिंग वगैरह क्या बकवास है। वो कहते थे कि चार दिन नाटक बहुत कर लिया अब कोई काम करो, वरना अपना घर कैसे चलोओगे। उनकी चिंता भी वाजिब थी। थियेटर से कोई कमाई तो कर नहीं सकते थे। लेकिन जब मेरा एनएसडी में चयन हुआ तो उनको लगा कि शायद मैंने कुछ पाया है। क्योंकि जब 1986 में एनएसडी में आया तो उस दौर में अगर आपके आगे नेशनल शब्द लग जाता था, तो लोगों को लगता था कि आपने कुछ पाया है। नैशनल स्कूल ऑफ ड्रामा सुनकर लोगों को लगता था कि कुछ बड़ा आपने पाया है। तब पिताजी को थोड़ी संतुष्टि हुई कि कुछ तो बेटा अच्छा कर रहा है। उसके बाद उनका निधन हो गया। फिर जब हम 1989 में पटना आए ताे पूरा राजनीतिक माहौल बना हुआ था। थियेटर वगैरह का भी उठा-पटक हो गया था। सब लोग अपने ढंग का कुछ कर रहे थे। मुझे उस समय सझम नहीं आ रहा था कि क्या करें, तब एक दोस्त ने कहा कि मुंबई में देख लो। तब हम अपना बक्सा उठाकर चल दिए मुंबई देखने के लिए। तब से अब तक हम मुंबई देख ही रहे हैं।
सीरीज ‘गर्मी’ में अपने किरदार के बारे में बताएं?
मूलत: ये एक राजनीति की जानकारी रखने वाला आदमी है, जिसको लोग बैरागी बाबा के नाम से जानते हैं। वह राजनीति को बहुत गंभीरता के साथ समझता है। जमीनी स्तर पर कैसे काम किया जाता है, कैसे उनका ब्रेन वॉश कर सकते हैं, उसके बारे में वह बखूबी जानता है। इसलिए जितने भी छात्र होते हैं, वो उसके ट्रैप में होते हैं। बाहर उसका अखाड़ा है, लेकिन कमरे में राजनीति के दांव पेंच होते हैं।
ऐसा कोई दौर आया जब आपकाे इंडस्ट्री में बने रहने के लिए किसी की मदद लेनी पड़ी हो?
हां कई लोगों ने मदद की और मैंने भी कई ऐसे लोगों की मदद की, जिन्होंने बाद में मेरी सहायता नहीं की। मेरी मदद करने वाले दो लोगों को मैं कभी नहीं भूल पाता हूं।उसमें से एक राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता डायरेक्टर हैं, विजय अरोड़ा। दूसरे साउंड इंजीनियर राजेंद्र हेगड़े थे। इन दोनों तब उस दौर में मेरी मदद की थी जब 1986-87 में मुझे पैसों की तंगी का सामना करना पड़ा था। ये हम कभी नहीं भूल सकते। मैं जब मुंबई आया था तब 35 साल की उम्र थी, उस वक्त हम में बचपने वाली बात नहीं थी। हम जिस दौर को फेस करके आए हैं, तो आप समझ लीजिए कि हम बचपन में ही बड़े हो गए थे।
जितनी भी वेब सीरीज होती हैं और जिनमें वायलेंस नजर आता है, वो कहानी ज्यादातर यूपी बिहार से ली जाती हैं। जबकि देश के कई हिस्से और विश्वविद्यालयों में अक्सर छात्रों के बीच तनातनी और पॉलिटिकल डिस्टरबेंस की खबरें भी आती हैं, ऐसे में क्या वजह है कि मेकर्स को छात्र, वायलेंस और पॉलिटिक्स की कहानी के लिए यूपी और बिहार का ही रुख करना पड़ता है?
इसके पीछे एक बेसिक वजह है कि वहां के लोग ज्यादा उत्तेजना में रहेंगे, जहां पर क्राइसिस है। अगर आप ध्यान दें तो आजादी के बाद से ही अगर ये दो राज्य बिहार और उत्तर प्रदेश क्राइसिस में थे। जबकि पंजाब, राजस्थान और पंजाब से अलग होकर हरियाणा बना तो वहां उस तरह के हालात नहीं थे। उसके अलावा महाराष्ट्र, हिमाचल जैसी जगहों पर दिक्कतें नहीं थीं। क्राइसिस की वजह से यूपी और बिहार में राजनीति का बाहुल्य है वो बढ़ता जाता था। इसी कारण यूपी-बिहार में बहुत ज्यादा लोग आईएएस और आईपीएस बनते थे।
आपके भाई भी आईपीएस ऑफिसर हैं, तो कई किस्से कहानियां तो आपको उनसे भी सुनने को मिलती होंगी?
हां बीते दिन उनके एक्सटेंशन का भी रिटायरमेंट हो गया है। वैसे हम दोनों ज्यादा बातचीत नहीं करते हैं। हम इस मामले में ज्यादा बात नहीं करते हैं। वो हमसे अपने विभाग की बात शेयर नहीं करते हैं। हमारे और उनके बीच में उम्र का भी कोई बड़ा फासला नहीं था, हमसे दो-ढाई साल बड़े हैं। हम थियेटर करते रहे तो हमें इतनी फुरसत नहीं थी, और वो भी अपनी पुलिस की वर्दी में व्यस्त रहे। अरे भई ! हम बिहार से हैं, उनसे ज्यादा कहानी तो हमें पता होती हैं। जो कहानियां हमें पहले पता चलती थीं, उनको तो कई कहानियां हमारे बाद में जानकारी में आती होंगी। (हंसते हुए) हमें उनसे पहले पता चल जाता था कि अच्छा ये होने वाला है। आप समझ रहे होंगे कि हम क्या कहना चाहते हैं।