मध्यप्रदेश का सीधी जिला। यहां मुढेरिया गांव के रहने वाले राजबहोरन सिंह के पास आठ एकड़ खेती है। साल 2019 में राजबहोरन ने करीब साढ़े सात एकड़ में गेहूं बोया था। दूसरे हिस्से में चना और अलसी बोई थी। मार्च 2019 में आई तेज बारिश और ओलावृष्टि से 70% फसल बर्बाद हो गई। सरकार ने मुआवजे की घोषणा की। राजस्व और कृषि विभाग के अधिकारी सर्वे करके ले गए।
करीब दो महीने बाद राजबहोरन सिंह को चार हजार रुपए का मुआवजा मिला, जबकि इससे कहीं ज्यादा रकम वह खेत को अगली फसल के लिए साफ कराने में खर्च कर चुके थे। उनके गांव में विश्राम सिंह और लाल बहादुर सिंह जैसे किसानों को भी ऐसे ही मुआवजा मिला था। पिछले साल भी कई किसानों को हजार रुपए से कम का मुआवजा दिया था। किसानों की यही पीड़ा प्राकृतिक आपदा के बाद मिलने वाले मुआवजे में सरकारी सिस्टम की लेतलाली और मनमानी की मिसाल है। आखिर क्या है मुआवजे का गणित?
दावा- 15 दिन में मुआवजा देंगे: 6 मार्च को ओले गिरे, अभी तक सर्वे नहीं
2023 चुनावी साल है। सरकार का दावा है कि पीड़ित किसानों को 15 दिन में मुआवजा मिलेगा, लेकिन किसानों को हकीकत में यह दूर की कौड़ी लग रहा है। कई किसानों का कहना है कि 6 मार्च को बारिश और ओलावृष्टि हुई थी। 15 दिन से ज्यादा बीत चुके हैं, लेकिन कोई सर्वे तक करने नहीं आया। 19-20 मार्च की ओलावृष्टि के बाद पटवारी आए थे। नजरी सर्वे कर ले गए।
राजस्व अधिकारियों का कहना है कि नुकसान के सर्वे के लिए राजस्व, कृषि और उद्यानिकी विभाग के मैदानी अफसरों की टीम बनाई जा रही है। यह टीम गांवों में जाकर फसलों के औसत उत्पादन की जांच करेगी। इसे राजस्व की भाषा में फसल कटाई प्रयोग कहते हैं। नुकसान का आकलन इस प्रयोग के आधार पर ही होगा। उनकी दी गई रिपोर्ट के आधार पर ही मुआवजे का केस बनेगा।
किसानों की चिंता है कि जब तक प्रक्रिया पूरी होगी, उनकी आर्थिक स्थिति और खराब हो चुकी होगी। यह डर गैर जरूरी भी नहीं है। क्योंकि जब प्राकृतिक आपदा से फसल खराब होती है तो अफसरशाही ऐसा ही करती है। अफसर ये मानने को तैयार ही नहीं होते कि उनके क्षेत्र में फसल खराब हुई है। ताजा उदाहरण- ओले से सर्वाधिक प्रभावित विदिशा जिले की सिरोंज तहसील का है। यहां के एसडीएम बृजेश सक्सेना का कहना है कि उनके क्षेत्र में अधिक नुकसान नहीं हुआ है। केवल धनिया में 50% का नुकसान है। गेहूं अभी ठीक है। सरसों-चने की 90% फसल काटी जा चुकी है। कुल मिलाकर नुकसान नगण्य है।
एसडीएम के दावे के विपरीत किसानों का कहना है कि फसलें चौपट हो चुकी हैं। अफसर एसी रूम में बैठकर अंदाजा लगाते हैं। आपदा में अक्सर प्रशासन का यही रवैया होता है। वे नुकसान को स्वीकार नहीं करते। इसका असर यह हाेता है कि किसान की पूरी लागत डूब जाती है। उससे उबरने में कई साल लग जाते हैं।
किसान कांग्रेस के सचिव सुरेंद्र रघुवंशी का कहना है कि प्रशासन ठीक से सर्वे नहीं कर रहा है। इसकी वजह से नुकसान की वास्तविक तस्वीर सामने आने में संदेह है, क्योंकि हर चीज आंकड़े पर मानी जाती है। जब रिपोर्ट में लिखा जाएगा कि नुकसान नहीं हुआ है, तो कौन मानेगा।
भारतीय किसान संघ के प्रदेश महामंत्री चंद्रकांत गौर कहते हैं कि फसल बीमा का सिस्टम जमीन पर किसी किसान को समझ नहीं आया। इस पर सरकार कई बार हंसी का पात्र बनी है। पिछली बार हरदा जिले के किसानों को फसल बीमा के नाम पर 1.47 रुपए थमा दिए गए थे। इस बार जब तक सर्वे पूरा होगा, रिपोर्ट बनेगी, किसान जमीन पर दूसरी फसल बोने की तैयारी में लग जाएगा। आखिर में नुकसान के अनुपात मुआवजा राशि बहुत कम ही मिल पाती है।
पहले जानिए, मुआवजे की प्रक्रिया?
- जिला स्तर पर नुकसान का सर्वे करने के लिए राजस्व, कृषि, उद्यानिकी और पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग के कर्मचारी या अधिकारियों की टीम बनती है।
- पटवारी और कृषि विभाग के मैदानी अधिकारी नजरी सर्वे करते हैं। यह रिपोर्ट राज्य सरकार को भेजी जाती है। उसी के आधार पर नुकसान का प्रारंभिक आकलन होता है।
- फसलों की कटाई के समय सर्वे टीम प्रभावित खेतों पर पहुंचकर गांव में चार जगह फसल के एक हिस्से की कटाई कर उत्पादन की जांच करती है। इसे फसल कटाई प्रयोग कहते हैं।
- इसी की मदद से गांव का औसत उत्पादन निकाला जाता है। सामान्य औसत उत्पादन से यह जितना कम होता है, उतना प्रतिशत नुकसान माना जाता है।
- इसी के आधार पर नुकसान की रिपोर्ट बनती है। रिपोर्ट को ग्राम पंचायत के नोटिस बोर्ड पर लगाकर दावे-आपत्ति मांगी जाती है। ग्राम सभा की बैठक में भी रिपोर्ट पढ़कर सुनाने का प्रावधान है।
- तहसील और जिला स्तर पर दावा-आपत्ति की सुनवाई के बाद अंतिम सूची जारी होती है। उसी के आधार पर मुआवजा बनता है।
- राज्य सरकार से इसी आधार पर जिले के लिए मुआवजे की रकम मंजूर होती है। रकम जिला कोषालय में भेजी जाती है। प्रशासन इसे संबंधित किसानों के खाते में भेजता है।
सीमांत और बड़े किसानों का पैमाना
किसानों का आरोप है कि महीनों तक अफसर या पटवारी नुकसान का आकलन करने नहीं पहुंचते। ज्यादातर मामलों में अंदाजे से ही नुकसान का अनुमान लगाया जाता है। सर्वे रिपोर्ट RBC 6-4 यानी राजस्व पुस्तक परिपत्र के आधार दो अलग-अलग श्रेणी में तैयार की जाती है। इसी के आधार पर मुआवजे की राशि भी दी जाती है। पहली श्रेणी में उन किसानों को रखा जाता है, जो दो हेक्टेयर तक की जमीन पर खेती करते हैं। ये सीमांत किसान कहे जाते हैं।
दूसरी श्रेणी में दो हेक्टेयर से अधिक रकबे पर खेती करने वाले किसानों को रखा जाता है। नियम इस तरह बने हैं कि 25% से अधिक फसल का नुकसान होने पर ही पीड़ित किसान मुआवजे का पात्र होगा। इस मामले में किसानों का आरोप है कि कई बार हमारा शत-प्रतिशत नुकसान हो चुका होता है, लेकिन अफसर से 25% तक भी नहीं मानते हैं।
मुआवजा मिलने में लग जाते हैं महीनों
किसी क्षेत्र में प्राकृतिक कारणों से फसल को क्षति पहुंचती है तो सबसे पहले पटवारी, पटेल अथवा कोटवार का जिम्मा है कि उसकी जानकारी स्थानीय राजस्व अधिकारी नायब तहसीलदार, तहसीलदार या उपखंड अधिकारी को देते हैं। इसके बाद ये अधिकारी प्रभावित क्षेत्र में पहुंचकर क्षति का आकलन करते हैं।
साथ ही, प्रतिवेदन तैयार कर कलेक्टर या संभागायुक्त तक पहुंचाते हैं। इसके बाद मुआवजे की फाइल तैयार की जाती है। यानी सर्वे का काम प्रशासकीय सूचना तंत्र की तेजी पर निर्भर है। एक अधिकारी से दूसरे अधिकारी के पास जितनी जल्दी नुकसान की जानकारी पहुंचेगी, उतनी तेजी से सर्वे रिपोर्ट तैयार होगी।
सामान्य तौर पर इसमें 5 से 8 दिनों का वक्त लग जाता है। वहीं, सर्वे रिपोर्ट तैयार होने के बाद किसानों की खाते में राशि पहुंचने में करीब 15 दिन का वक्त लगता है। इस तरह अगर ठीक तरीके से काम होता है तो किसानों को नुकसान का पैसा 20 से 25 दिनों के भीतर मिल जाना चाहिए।
हालांकि, ऐसा हाेता नहीं है। प्रशासन की लेटलतीफी के चलते कई बार किसानों के खातों में महीनों तक मुआवजे की राशि नहीं पहुंच पाती। कई बार तो वर्षों तक मुआवजे की फाइल दफ्तरों के चक्कर ही लगाती रहती है। उदाहरण के तौर पर विदिशा जिले के अंदर आने वाले गांव रजाखेड़ी के किसानों को ही ले लीजिए। वे बताते हैं कि पिछली बार 2013-14 में फसल कटाई के समय बरसात से नुकसान हुआ था। उस समय जो सर्वे किया गया, उसके नुकसान पर मामूली मुआवजा मिला था, वह भी बहुत देर से। उस समय प्रति हेक्टेयर सिर्फ तीन-चार हजार रुपए की मदद मिली थी।
पहले फेज में सिर्फ चार जिलों को ही राहत
प्रदेश में सरकार बारिश और ओले से खराब हुई फसलों का आकलन के लिए दो फेज में सर्वे करा रही है। पहले फेज में 6-9 मार्च के बीच हुए नुकसान का सर्वे हो रहा है। रिपोर्ट के मुताबिक रतलाम, आगर-मालवा, मंदसौर, विदिशा, नीमच, खरगोन, राजगढ़, रायसेन, बड़वानी, भोपाल, शाजापुर, ग्वालियर, शिवपुरी, श्योपुर, मुरैना और धार इन 16 जिलों में ओले गिरे थे, लेकिन राहत सिर्फ रतलाम, मंदसौर, विदिशा और धार में इन चार जिलों में ही दी जाएगी। इन जिलों में 25% से ज्यादा नुकसान दिख रहा है, अन्य 12 जिलों में नुकसान इससे कम है। दूसरे फेज की सर्वे रिपोर्ट 25 मार्च तक आने की उम्मीद है।
50% से अधिक नुकसान पर प्रति हेक्टेयर 32 हजार रुपए मिलेंगे
मौसम में कुछ सुधार के बाद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान नुकसान का आकलन करने सागर जिले के बीना तहसील के गावं रुसल्ला पहुंचे। यहां उन्होंने कहा कि गेहूं, चना और मसूर की 50 प्रतिशत से ज्यादा फसल नुकसान होने पर प्रति हेक्टेयर 32 हजार रुपए दिए जाएंगे। फसल बीमा का कार्य भी साथ में चलेगा। बिजली गिरने से जनहानि होने पर परिवार को 4 लाख की सहायता दी जाएगी। वहीं, गाय-भैंस की मृत्यु पर 37 हजार, भेड़-बकरी की मृत्यु पर 4 हजार और मुर्गा-मुर्गी की मृत्यु पर 100 रुपए दिए जाएंगे। जिन किसानों की फसलें ओलावृष्टि से क्षतिग्रस्त हुई हैं, उनकी कर्ज वसूली नहीं होगी। सीएम शिवराज ने कहा कि अब तक 20 से ज्यादा जिलों में ओलावृष्टि से फसलों को नुकसान की जानकारी मिली है।
बर्बाद फसल को खेत से हटाया तो राहत नहीं
राजस्व अधिकारियों का कहना है कि फसलों के नुकसान के एवज में रेवेन्यू बुक सर्कुलर के तहत राहत राशि केवल खेत में खड़ी अथवा पड़ी फसल पर मिलेगी। अगर किसान उस फसल को खलिहान तक ले आया है अथवा घर तक ले आया है। वहां नुकसान हो गया तो मुआवजा नहीं मिलेगा।
बीमा प्रीमियम देने के बाद भी नहीं हो पाती नुकसान की भरपाई
प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में रबी फसलों के लिए तय प्रीमियम का 1.5% हिस्सा किसान को जमा करना होता है। धनिया जैसी उद्यानिकी फसल के लिए यह दर 5% तक रखी गई है। प्रीमियम का शेष हिस्सा राज्य और केंद्र सरकार मिलकर उठाती हैं, लेकिन कंपनियों को जितना प्रीमियम अदा किया जाता है, उसकी तुलना में बहुत कम राशि का भुगतान किसानों को किया जाता है।
2019-20 में 78 लाख किसानों का बीमा हुआ था। कुल बीमा राशि 32 हजार 30 करोड़ रुपए से अधिक की थी। इसके लिए किसानों ने 629 करोड़ और सरकार ने तीन हजार 758 करोड़ रुपए प्रीमियम के तौर पर जमा किए थे। उस साल रबी और खरीफ फसलों को मिलाकर केवल 80 लाख रुपए किसानों को मिल पाए थे।
भारतीय किसान संघ के प्रदेश महामंत्री चंद्रकांत गौर का कहना है कि फसल बीमा का सिस्टम समझ नहीं आया है। किसान कांग्रेस के सचिव सुरेंद्र रघुवंशी का कहना है कि किसानों से प्रीमियम काटते समय बैंक और सहकारी समितियां यह तक नहीं बताती कि किस बीमा कंपनी से उनका बीमा हो रहा है। उसकी रसीद तक नहीं मिलती। ऐसे में प्राकृतिक आपदा के समय किसान बीमा कंपनी को सूचना भी नहीं दे पाता। बाद में दावा होता है तो कंपनी कहती है कि उन्हें समय से नुकसान की सूचना ही नहीं दी गई।