भोपाल। यह लोकतंत्र की खूबसूरती ही है कि किसी भी दल का हिस्सा नहीं होते हुए भी कुछ निर्दलीय मजबूत प्रत्याशी मध्य प्रदेश में अपनी किस्मत आजमा रहे हैं और जीतने के बाद जनता को बेहतर काम आने का भरोसा दिला रहे हैं।
यह और बात है कि ऐसे मजबूत प्रत्याशियों की निर्दलीय के रूप में चुनाव मैदान में उपस्थिति राजनीतिक पार्टियों खासकर भाजपा और कांग्रेस के लिए मुश्किल की स्थिति पैदा करती है।
टिकट न मिलने पर चुनाव लड़ रहे निर्दलीय उम्मीदवार
मध्य प्रदेश के चुनावी रण में इस बार भी कुछ ऐसे निर्दलीय प्रत्याशी ताल ठोक रहे हैं, जो अपने आप में दल होने का दम भर रहे हैं और भाजपा-कांग्रेस का खेल बिगाड़ भी सकते हैं। इनमें अधिकतर नेता वे ही हैं, जिन्होंने भाजपा और कांग्रेस से टिकट न मिलने से नाराज होकर अपनी अलग राह पकड़ ली है।
निर्दलीय उम्मीदवार बिगाड़ सकते हैं समीकरण
पिछले चुनाव की तुलना में इस बार इनकी संख्या कुछ अधिक है। इनमें कुछ तो पूर्व सांसद और विधायक भी हैं। इनको लेकर दोनों दल सतर्क भी हैं, क्योंकि जातीय और स्थानीय समीकरणों के कारण इनका अपना मजबूत जनाधार भी है।
प्रदेश में एक दर्जन सीटें ऐसी हैं, जहां निर्दलीय भाजपा और कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती बनकर उभरे हैं। डा. आंबेडकर नगर महू विधानसभा सीट से अंतरसिंह दरबार निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं। ये कांग्रेस से विधायक रह चुके हैं, पर टिकट न मिलने से नाराज होकर चुनाव मैदान में उतर गए हैं।
किन सीटों पर निर्दलीय उम्मीदवारों ने ठोकी ताल?
इसी तरह आलोट से प्रेमचंद गुड्डू, गोटेगांव से शेखर चौधरी, सिवनी मालवा से ओम रघुवंशी, होशंगाबाद से भगवती चौरे, धार से कुलदीप सिंह बुंदेला, मल्हारगढ़ से श्यामलाल जोकचंद, बड़नगर से राजेंद्र सिंह सोलंकी, भोपाल (उत्तर) से नासिर इस्लाम और आमिर अकील भी निर्दलीय ताल ठोक रहे हैं। कांग्रेस नेताओं ने इन्हें समझाने-मनाने की खूब कोशिश भी की, लेकिन बात नहीं बनी।
दरअसल, पार्टी ने गोटेगांव और बड़नगर में पहले जो प्रत्याशी घोषित किए थे, उन्हें बदल दिया। इससे आहत दोनों सीटों पर कांग्रेस नेता निर्दलीय मैदान में उतर गए। कांग्रेस की तुलना में देखें तो भाजपा की स्थिति बेहतर है। सीधी से केदारनाथ शुक्ल और बुरहानपुर से हर्षवर्धन सिंह चौहान ही ऐसे हैं, जो निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं।
पिछले चुनाव में जीते दो निर्दलीयों को भाजपा और दो को कांग्रेस ने दिया टिकट
पिछले चुनाव की बात करें तो चार निर्दलीय ही चुनाव जीते थे। इनमें से प्रदीप जायसवाल और विक्रम सिंह राणा इस बार भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं। वहीं, सुरेंद्र सिंह शेरा और केदार डाबर कांग्रेस के प्रत्याशी हैं।
इसके पहले 2013 में दिनेश राय मुनमुन, सुदेश राय और कल सिंह भाबर निर्दलीय चुनाव जीते थे। तीनों अब भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं।
कुल मिलाकर देखा जाए तो भले ही नेता निर्दलीय चुनाव जीत जाते हैं, पर उनका झुकाव किसी न किसी दल की ओर रहता ही है, दलों का भी आकर्षण उनमें बढ़ जाता है। अगला चुनाव वे दलों के टिकट पर ही लड़ते हैं। नेता और पार्टी दोनों जानते हैं कि जब वे निर्दलीय चुनाव जीत सकते हैं तो पार्टी के प्रति प्रतिबद्ध मतदाता जब उनके साथ जुड़ जाएगा तो जीत पक्की हो जाती है।