करने कुछ गए थे, हो कुछ गया, लेकिन जो हुआ अच्छा हुआ। ऐसा ही कुछ हुआ है इंदौर के एक किसान के साथ। उसने फायदे के लिए अंबाडी की खेती शुरू की, लेकिन अंबाडी की फसल ने हल्दी की फसल के लिए कीटनाशक का काम किया। इससे उसका लाभ बढ़ गया। आज स्मार्ट किसान में जानते हैं कि इंदौर के सिमरोल निवासी किसान जितेंद्र की कहानी।
ऐसे पता चला कि अंबाडी तो फायदे का सौदा है
जितेंद्र पाटीदार बताते हैं कि दो साल पहले की बात है। मैं पारंपरिक तरीके से खेती कर रहा था। ज्यादातर हल्दी की पैदावार करता था, लेकिन हल्दी में लगे कीट मेरी फसल का काफी हिस्सा चट कर जाते थे। मैं ऐसी फसल खोज रहा था, जिससे मेरे लिए लाभ का सौदा बन जाए, तभी मेरे एक दोस्त ने बताया कि अंबाडी की खेती कर। मैंने इंटरनेट पर सर्च किया तो पता चला इसके पत्ती से लेकर जड़ तक बिकती है। फिर आत्मा की शर्ली थॉमस से बात की तो उन्होंने बताया कि इसके फूलों से जैम बनता है, जो महंगे दामों पर बिकता है।
फूलों पर मरे पड़े थे व्हाइट फ्लाई
मुझे लगा कि यही अंबाडी की खेती नुकसान को फायदे में बदल सकती है। शुरुआत में तय किया इसे कम हिस्से में प्रयोग के तौर पर लगाऊंगा। मैंने इसे हल्दी की फसल के साथ ही लगा दिया। अंबाडी के पौधे बड़े होने लगे। एक दिन जब मैं इसके फूलों को देखने लगा तो उसमें मुझे हल्दी के लिए हानिकारक कीट (व्हाइट फ्लाई) मरे मिले। फिर गौर किया ताे पता चला इस बार हल्दी की फसल को कम नुकसान हुआ है। मुझे यकीन नहीं हुआ तो अगली बार हल्दी के फसल के बीच में अंबाडी के पौधे लगाए तो नतीजा पहले जैसा ही मिला। अंबाडी अब हमारे लिए कीटनाशक का काम कर रहा था। अब मैं हर फसल के बीच में अंबाडी लगाता हूं, जिससे कीटनाशक की जरूरत नहीं पड़ती है।
2016-17 से शुरू की प्राकृतिक खेती, तीन गुना मुनाफा
जितेंद्र पाटीदार बताते हैं कि मैं खेतों में केमिकल-यूरिया का उपयोग करता था। 2016-17 में मैंने पद्मश्री सुभाष पालेकर का प्राकृतिक खेती का शिविर अटेंड किया। पालेकर को भारत में प्राकृतिक खेती का जनक कहा जाता है। उनके शिविर के बाद मेरी रुचि जैविक खेती की ओर बढ़ी। इसके बाद मैंने अपने एक एकड़ खेत में उपलब्ध सामग्री और पशुधन से मिले गोबर, गोमूत्र और छाछ से जीवामृत घन, जीवामृत, डी-कंपोजर जैविक कीटनाशक का उपयोग करना शुरू किया।
इसके अच्छे परिणाम मिले तो धीरे-धीरे खेतों में से केमिकल का उपयोग करना कम कर दिया। कुछ मात्रा में रासायनिक खाद और कुछ कंपोस्ट खाद मिलाकर में फसल लेने लगा। इसके साथ ही फंगीसाइड के स्थान पर मैंने मित्र फफूंद व शुष्क जीवियों का सहारा लिया, जिसके चमत्कारिक परिणाम मिले। मैं अब 6 एकड़ में हल्दी की जैविक खेती कर रहा हूं, जिससे हर साल 9 से 10 लाख रुपए का मुनाफा हो रहा है। इसके साथ ही मेरे ब्रांड से 15 से 20 लोगों को रोजगार भी मिल रहा है।
अपने ब्रांड की हल्दी बेचकर कमा रहे मुनाफा
जितेंद्र बताते हैं कि अंबाडी के पौधों से होने वाले फायदों को देखते हुए मैंने अपने खेत पर हल्दी की 6 तरह की वैरायटी लगाई। हर किस्म की अलग खासियत होती है। इन फसलों के उपयोग में किसी प्रकार के केमिकल का उपयोग नहीं करता हूं। आर्गेनिक हल्दी होने के कारण इसे ऊंचे दाम पर बेचता हूं, जिसे लोग आसानी से खरीदते हैं। इस तरह से मेरी आमदनी भी बढ़ गई है। इसके बाद मैंने दालों की खेती शुरू की, जिसे तुअर, उड़द और मूंग दाल लगाई है। मैं अपनी आधी जमीन पर प्राकृतिक खेती करता हूं, बाकी आधी जमीन धीरे-धीरे केमिकल मुक्त हो रही है।
आर्गेनिक तरीके से पैदा किए गए उत्पादों को मैं अपने ब्रांड ‘शगुन नेचुरल’ के माध्यम से ही बेचता हूं। इस ब्रांड की ख्याति गुजरात, राजस्थान, मुंबई, देहरादून और पुणे जैसे शहरों में फैल गई है। अब हमारे पास इतने ऑर्डर है कि इसकी सप्लाई नहीं कर पा रहे हैं।
केंचुआ खाद खूब मददगार साबित हुई
जितेंद्र पाटीदार ने बताया कि मैंने हल्दी की फसल के लिए ढेंचा (केंचुआ खाद) का उपयोग किया। इससे नाइट्रोजन की पूर्ति प्राकृतिक रूप से हुई। यूरिया पर मेरी निर्भरता भी खत्म हो गई। इतना ही नहीं जमीन का ऑर्गेनिक कार्बन बढ़कर 1% तक पहुंच गया, जिससे शुष्मजीव की उपलब्धता सहज रूप से फसलों को होने लगी। इससे हुआ यह कि फसल पर लगने वाले कीट भी ढेंचा की ओर आकर्षित हुए। जब इसे हल्दी की फसल के बीच मल्च किया, तो इसके नीचे केंचुओं की पर्याप्त मात्रा खेत में हो गई, जिसने धरती की नीचे पाए जाने वाले पोषक तत्वों को ऊपर लाने का काम किया। खेत में लगे पौधों की जमीन को चारों तरफ से ढेंचा से कवर किया जाता है। कवर करने के तरीके को पलवार या मल्च कहा जाता है।