नई दिल्ली: भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) ने शुक्रवार की सुबह SSLV-D2 का सफल प्रक्षेपण करते हुए तीन सैटेलाइस अंतरिक्ष की कक्षा में पहुंचाए। श्रीहरिकोटा के सतीश धवन स्पेस सेंटर से लॉन्च SSLV-D2 अपने साथ तीन सैटलाइट लेकर गया है। ये हैं अमेरिका का जानूस-1, चेन्नै के स्टार्टअप ‘स्पेस किड्ज इंडिया’ का आजादी सैट-2 और इसरो का अपना अर्थ ऑब्जर्वेशन सैटलाइट EOS-7। तीनों अपनी कक्षा में स्थापित हो गए हैं। यह कामयाबी काफी बड़ी है, क्योंकि इससे पहले इसरो का प्रयास सफल नहीं हुआ था। भारत के नए रॉकेट स्मॉल सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल (एसएसएलवी-डी2) ने शुक्रवार सुबह 156.3 किलोग्राम वजनी अर्थ ऑब्जर्वेशन सैटेलाइट-07 (ईओएस-07) के साथ उड़ान भरी। इसी के साथ ही पिग्गीबैकिंग दो अन्य उपग्रह, 10.2 किलोग्राम जानूस -1, जो अमेरिका के एंटारिस से संबंधित है और 8.7 किलोग्राम आजादीसैट -2, जो स्पेस किड्ज इंडिया, चेन्नई से संबंधित है, प्रक्षेपित किया गया। एसएसएलवी-डी2 का कुल वजन 175.2 किलोग्राम है।
जानें क्यों है खास
इसरो ने कहा कि अपनी उड़ान के लगभग 13 मिनट बाद, एसएसएलवी रॉकेट ईओएस-07 को बाहर निकाल देगा और इसके तुरंत बाद अन्य दो उपग्रहों जनूस-1 और आजादीसैट-2 को 450 किमी की ऊंचाई पर बाहर निकाल दिया जाएगा। अपने पोर्टफोलियो में नए रॉकेट के साथ, इसरो के पास तीन रॉकेट होंगे। पोलर सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल (पीएसएलवी) और इसके वेरिएंट (कीमत लगभग 200 करोड़ रुपये), जियोसिंक्रोनस सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल (जीएसएलवी-एमके 2 की कीमत लगभग 272 करोड़ रुपये और एलवीएम-3, 434 करोड़ रुपये) और एसएसएलवी (प्रत्येक तीन रॉकेट की विकास लागत लगभग 56 करोड़ रुपये) और उत्पादन लागत बाद में कम हो सकती है।
गौरतलब है कि एसएसएलवी की पहली उड़ान एसएसएलवी-डी1- 7 अगस्त, 2022 को विफल हो गई थी। क्योंकि रॉकेट ने दो उपग्रहों – ईओएस-01 और आजादीसैट को गलत कक्षा में डाल दिया था। इसरो के अनुसार, एसएसएलवी-डी1 के ऑनबोर्ड सेंसर इसके दूसरे चरण के पृथक्करण के दौरान कंपन के कारण प्रभावित हुए थे। जबकि रॉकेट का सॉफ्टवेयर उपग्रहों को बाहर निकालने में सक्षम था, इजेक्शन गलत कक्षा में किए गए थे। उपग्रहों में एक स्थिर कक्षा में होने के लिए आवश्यक वेग का भी अभाव था।
छोटे सैटलाइटों की ये खूबी है सबसे ज्यादा खास
छोटे सैटलाइटों का अंतरिक्ष में लंबे समय तक टिके रहना मुश्किल इसलिए भी होता है कि वे आवश्यक एनर्जी हासिल नहीं कर पाते। आजादीसैट-2 की एक्सपैंडबल संरचना का फायदा यह है कि छोटे आकार के कारण इसे ले जाने में अतिरिक्त खर्च नहीं पड़ता और ऑर्बिट में पहुंचने के बाद इसकी बढ़ी हुई संरचना में लगा सोलर पैनल इसके लिए ऊर्जा पाने का जरिया बन जाता है। छोटे सैटलाइट के साथ इस तरह का प्रयोग पहली बार ही किया गया है। तीसरी और सबसे बड़ी बात यह है कि इस सफल अभियान के जरिए इसरो ने छोटे सैटलाइटों के उभरते हुए बाजार में पैठ बनाने की कोशिश की है।