‘जिंदगी लंबी नहीं, बड़ी होनी चाहिए…’ इसी कांसेप्ट पर आधारित है बॉलीवुड फिल्म सलाम वेंकी। एक ऐसे युवा की कहानी जो ड्यूकेन मॉस्कुलर डिस्ट्राफी नामक ला-इलाज बीमारी से पीड़ित है। उसका एक-एक अंग काम करना बंद करने लगता है। असहनीय दर्द और हर सांस के लिए संघर्ष करते हुए सर्वाइवल अपनी पॉजीटिव सोच के चलते 25 साल तक जीता है। वह अंगदान करना चाहता है। अंत में कहानी इच्छामृत्यु तक ले जाती है…।
मेडिकल साइंस कहता है कि सर्वाइवल (हम इन्हें पीड़ित नहीं लिख रहे।) 15 से 25 साल तक जीते हैं। भास्कर आपको रायपुर के ऐसे ही सर्वाइवल की कहानी बता रहा है, जो 7-8 साल की उम्र से व्हीलचेयर पर हैं। इन युवाओं को पता है जिंदगी कभी भी खत्म हो सकती है, इसलिए ठाना अंत तक लड़ेंगे और जीवन में मुकाम हासिल करके जाएंगे।
ड्यूकेन मॉस्कुलर डिस्ट्राफी, मयंक, 16 साल (बदला हुआ नाम)
मयंक
के पिता रायपुर में कारोबारी हैं। (उन्होंने नाम न प्रकाशित करने का
अनुरोध किया।) कहते हैं- 3 साल की उम्र में बीमारी का पता चल गया था। मगर,
हमने उसे कभी अपने दूसरे बच्चे से कमतर महसूस नहीं होने दिया, न फोर्स
किया। वह 9वीं पासआउट है। अभी भी रोजाना 3 घंटे पढ़ता है। आप उससे किसी भी
सब्जेक्ट के बारे में पूछ लीजिए, उसके पास सारे सवालों के जवाब हैं। यह गॉड
गिफ्ट है। उसे इस बीमारी के बारे में सब पता है, वह कहता है- पापा आप
परेशान न हों, मैं ठीक हूं…। पिता कहते हैं कि 7 साल की उम्र से मयंक
व्हीलचेयर पर है और रीड की हड्डी बैंड हो गई है।
देश के इन अस्पतालों में इलाज की सुविधा
एम्स
नई दिल्ली, मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज नई दिल्ली, संजय गांधी पोस्ट
ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस लखनऊ, पीजीआई चंडीगढ़, सेंटर फॉर
डीेएनए फिंगर प्रिटिंग एंड डाइग्नोस्टिक विथ निजाम इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल
साइंस हैदराबाद, किंग एडवर्ड मेडिकल हॉस्पिटल मुंबई, पीजीआई कोलकाता, सेंटर
ऑफर ह्युमन जेनेटिक्स इंदिरा गांधी हॉस्पिटल बैंगलुरू।
मांसपेशियां सिकुड़ीं, अंगुलियां मुड़ने लगीं, पर राइटर नहीं मांगा
मॉस्कुलर डिस्ट्राफी- प्रियेश पाठक, 23 वर्ष (पढ़ाई- एलएलएम प्रथम वर्ष)
हिदायतुल्ला लॉ यूनिवर्सिटी से एलएलएम की पढ़ाई कर रहे प्रियेश व्हीलचेयर से क्लास जाते हैं। अब तक की सारी परीक्षाएं खुद से लिखकर दी। पहले पेन आम व्यक्ति जैसे पकड़ते थे मगर मांसपेशियां सिकुड़ने लगीं। हाथ फोल्ड होने लगे और अंगुलियां मुड़ने लगी तो पेन पकड़ने का स्टॉइल बदला मगर राइटर नहीं मांगा। प्रियेश कहते हैं- मुझे बीमारी के बारे में सब पता है। साइंटिस्ट स्टीफन हॉकिंग्स 79 साल तक जीए, तो मैं क्यों नहीं? मैं सिविल सर्विसेस की तैयारी कर रहा हूं। मैं कम खाता हूं ताकि वजन न बढ़े, क्योंकि वजन बढ़ेगा तो परेशानियां बढ़ेंगी। एक लंग्स रीढ़ की हड्डी के झुकने से दब गया है। (मुस्कुराते हुए) एक तो काम करता है। माता-पिता कहते हैं- पिता प्रदीप, मां मंजू दूरदर्शन में सेवारत हैं। वे कहते हैं- वह सर्वाइवल है, मगर हमेशा अपनी उपलब्धियों से प्राउड फील करवाता है।
- मॉस्कुलर डिस्ट्राफी में भी प्रकार- मॉयोटॉनिक डिस्ट्राफी (एमडी), प्रोक्सिमल मॉयोटॉनिक डिस्ट्राफी, ड्यूकेन मस्कुलर डिस्ट्राफी या डीएमडी (सबसे धातक माना गया है।), बेकर डिस्ट्राफी, ओकुलोफेरीन्जियल मस्कुलर डिस्ट्राफी, डिस्टल मस्कुलर डिस्ट्राफी।
- कब पता चलता है- जन्म के 2-3 साल से लेकर 30 साल के बीच। इलाज- सिर्फ सपोर्टिव। फिजियोथैरेपी और व्यायाम भी कारगर है। अनुमानित उम्र- 18 से 30 साल तक।
- कारण- यह जेनेटिक हो सकती है। इसके लिए हजारों जीन जिम्मेदार हैं।
- प्रतिशत- बीमारी के 99 प्रतिशत सर्वाइवल लड़के होते हैं। प्रति 10 लाख आबादी में 8 लोग इससे पीड़ित हो सकते हैं। देश में कोई रिसर्च नहीं है।
- तकलीफ- चलते-चलते गिरना, उठने-बैठने, सांस लेने में तकलीफ होना, मांसपेसियों में दर्द और जकड़न के साथ असहनीय दर्द भी होता है।
- मौतें- रायपुर में बीते 2 साल में 4 युवा इस बीमारी से दमतोड़ चुके हैं। सरकारी सिस्टम में इलाज के खर्च का कोई प्रावधान अब तक नहीं है।
- जांच- अगर, बच्चे को चलने में समस्या हो रही है तो तत्काल शिशुरोग विशेषज्ञ से सलाह लें। उनकी सलाह पर जांच करवाएं। जीन टेस्ट समेत कुछ जांचे हैं जो इस बीमारी को डायग्नोस करती हैं। जानकार मानते हैं कि बीमारी की पहचान न होने की वजह से सर्वाइवल को सपोर्टिव इलाज नहीं मिल पाता। हडि्डयां टूटने लगती हैं, हार्ट और लंग्स फेल हो जाते हैं और कई मामलों में दिमाग तक असर होता है। कष्ट में मौत हो जाती है।