मध्यप्रदेश की सियासत में इन दिनों समाज का सबसे पिछड़ा तबका यानी आदिवासी राजनीतिक दलों की जुबान पर है। प्रदेश की करीब 2 करोड़ से ज्यादा आदिवासी आबादी को लुभाने के लिए सत्ताधारी भाजपा और विपक्षी दल कांग्रेस के नेता जोर लगा रहे हैं। पिछले चुनाव में आदिवासी क्षेत्रों में कांग्रेस को बढ़त मिली, तो 15 साल बाद बीजेपी को सत्ता से दूर होना पड़ा। पिछले चुनाव में हुई चूक को भाजपा दोहराना नहीं चाहती।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने आदिवासी वर्ग को पार्टी से जोड़ने के लिए पेसा कानून लागू किया है। आदिवासियों से जुड़ी तमाम योजनाओं, जनजातीय जननायकों की प्रतिमाएं लगवाने और स्मारकों का विकास कराने जैसे काम तेजी से शुरू किए हैं। 15 नवंबर से मप्र में पेसा कानून प्रभावी होने के बाद सीएम खुद आदिवासी क्षेत्रों में जाकर पेसा जागरूकता शिविर लगाकर आदिवासियों से सीधे जुड़ रहे हैं।
आदिवासी राजनीति का केंद्र बना इंदौर
मप्र
के 20 जिलों के 89 ब्लॉक आदिवासी बहुल हैं। इनमें सबसे ज्यादा इंदौर संभाग
के 40 विकासखंड आदिवासी बहुल हैं। इसी वजह से लगातार हो रहे इन राजनीतिक
कार्यक्रमों का केंद्र इंदौर ही है। दूसरे नंबर पर जबलपुर संभाग के 27
ब्लॉक जनजातीय बहुल हैं। अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के नजरिए से
देखें तो सालभर तक आदिवासी राजनीति का सबसे बड़ा केंद्र इंदौर ही रहेगा।
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी इसी आदिवासी बहुल इलाके में अपनी भारत
जोड़ो यात्रा निकाल चुके हैं।
50% से ज्यादा आदिवासी आबादी वाले सबसे ज्यादा गांव MP में
केंद्र
सरकार की एक रिपोर्ट बताती है कि देश में 50% या इससे ज्यादा जनजातीय
आबादी वाले कुल 36,428 गांव हैं। आधी से ज्यादा आदिवासी आबादी वाले गांवों
में मप्र देश में पहले नंबर पर है। एमपी के 7307 गांवों में आदिवासियों की
आबादी 50% से ज्यादा है। दूसरे नंबर पर राजस्थान में 4302 गांवों में 50%
आबादी आदिवासियों की है। इसके बाद छत्तीसगढ़ में 4029, झारखंड में 3891,
गुजरात में 3764, महाराष्ट्र में 3605 गांवों में आधे से ज्यादा आदिवासी
रहते हैं।
मप्र की 47 सीटें आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित, लगातार घटे बीजेपी के MLA
मप्र
विधानसभा में कुल 230 सीटें हैं इनमें से 47 आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित
हैं। साथ ही आदिवासियों की बड़ी आबादी होने से प्रदेश की 84 सीटों पर
आदिवासी वोटर्स निर्णायक हैं। प्रदेश में 2013 के विधानसभा चुनाव में
आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित इन 47 सीटों में से भाजपा ने 31 सीटें जीती
थीं। कांग्रेस के खाते में सिर्फ 15 सीटें आई थीं, लेकिन 2018 के चुनाव में
भाजपा को इसी ट्राइबल बेल्ट से करारी हार मिली और वो सिर्फ 16 पर ही जीत
दर्ज कर सकी। कांग्रेस ने 30 सीटें जीती थीं और भाजपा सत्ता से बाहर हो गई
थी। 2018 के विधानसभा चुनाव में इन्हीं आदिवासी वोटों के कारण ही 15 साल
बाद कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई थी।