पटना : बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार उस वक्त नाराज हो गये थे जब जातीय जनगणना को लेकर पीएम नरेंद्र मोदी की ओर से ठंडा रिस्पांस मिला। नीतीश कुमार के साथ दिल्ली जाकर पीएम से मिलने वालों में वर्तमान डेप्यूटी सीएम तेजस्वी यादव भी शामिल थे। नीतीश कुमार जातीय जनगणना को बिहार के विकास से जोड़कर देखते हैं। बीजेपी इसे राजनीतिक स्टंट करार देती है। महागठबंधन की सरकार ने जातीय जनगणना शुरू कर दी है। बिहार के सभी जिलों में स्कूली शिक्षक बच्चों को पढ़ाने का काम छोड़कर इसी काम में जुट गये हैं। बिहार में गत 7 जनवरी से जातीय गिनती शुरू है। बिहार सरकार बिना केंद्र की मदद पर इसे राज्य के खर्चे पर करवा रही है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट की बैठक में इसके लिए 500 करोड़ रुपये की राशि भी स्वीकृत की गई है। बिहार सरकार का मानना है कि राज्य में जातियों की स्थिति का पता चलने पर विकास योजनाओं के निर्माण में आसानी होगी।
जातीय जनगणना के मायने !
बिहार सरकार पहले और आज भी ये दावा करती है। जातीय जनगणना के पक्ष में बोलते हुए कहती है कि जातीय जनगणना का फायदा जमीनी स्तर तक होगा। सरकार जब जातीय स्थिति जान जाएगी, तो इससे राज्य सरकार को बजट निर्माण में मदद मिलेगी। गरीबों के साथ आर्थिक स्थिति के मामले में हाशिये पर खड़ी जातियों के लिए सही तरीके से योजनाओं का निर्माण हो सकेगा। सियासी जानकार इसे नीतीश कुमार का सबसे बड़ा गेम प्लान बता रहे हैं। जानकारों का मानना है कि नीतीश कुमार एक तीर से कई शिकार करना चाहते हैं। वो इसके जरिए बिहार में जातिगत स्थिति से राजनीतिक रूप से परिचित होना चाहते हैं। उसके हिसाब से प्लानिंग करना चाहते हैं। नीतीश के गेम प्लान को बहुत कम लोग समझ पाएंगे। हालांकि, जानकारों की मानें, तो जातीय जनगणना का फैसला कभी-कभी राज्य सरकारों पर बैक फायर भी करती है।
बिहार की सियासत पर असर !
बिहार से पहले देश के दो राज्यों ने इस तरह का फैसला लिया था। राजस्थान और कर्नाटक में जातिगत जनगणना हुई थी। कर्नाटक ने साल 2014 -15 में जातिगत जनगणना का फैसला लिया था। मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की ओर से लोगों के बीच इसे सामाजिक एवं आर्थिक सर्वे के तौर पर प्रचारित किया गया था। 150 करोड़ रुपये खर्च करने के बाद कंठराज समिति ने अपनी रिपोर्ट राज्य सरकार को सौंपी थी। इस जनगणना के बाद राज्य सरकार की सत्ता चली गई थी। राज्य सरकार अपनी दो तिहाई सीट नहीं बचा सकी थी। वहीं, इस फैसले के बाद सरकार भी विवादों में पड़ गई थी। गड़बड़ी ये हुई की सर्वे में ओबीसी की संख्या में भारी वृद्धि हो गई और राज्य के लिंगायत और वोक्कालिगा समुदाय की संख्या कम हो गई। अभी तक इस रिपोर्ट को राज्य ने जनता के सामने नहीं रखा गया है।
ओबीसी फैक्टर हावी !
जातिगत जनगणना में मुख्य मकसद राज्य सरकारों को ओबीसी की जनसंख्या का पता लगाना होता है। पूर्व में जब 1990 में केंद्र में वीपी सिंह की सरकार ने दूसरे पिछड़ा आयोग की सिफारिश को सामने किया था। जिसे लोग मंडल आयोग के नाम से जानने लगे। इस सर्वे में 52 फीसदी की आबादी को ओबीसी में रखा गया था। उसके बाद से बिहार की सियासत में राजनीति के केंद्र बिंदू में ओबीसी फैक्टर बना रहा। राज्य के अलावा देश में बीजेपी सहित क्षेत्रीय क्षत्रप हमेशा ओबीसी को देखकर अपनी सियासत को आगे बढ़ाते हैं। नीतीश सरकार के इस फैसले के भीतर छुपी मंशा का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि 90 के दशक में मंडल आयोग के बाद कई राज्यों में नई पार्टियों का उदय हुआ। बिहार में लालू यादव मंडल की रथ पर सवार होकर प्रचंड बहुमत के साथ बिहार की सत्ता में आए। अब तेजस्वी यादव पिता के इस सियासी दाव के पक्ष में खड़े नजर आते हैं। उन्हें इसका फायदा पता है।