नई दिल्ली: महिलाओं के अधिकारों को लेकर दशकों तक दिखे जूडिशल एक्टिविज्म के बाद अब सुप्रीम कोर्ट ने अपने रुख में बदलाव किया है। SC ने पुरुषों और महिलाओं के लिए शादी की न्यूनतम उम्र एक समान करने की मांग वाली याचिका सोमवार को खारिज कर दी। कोर्ट ने साफ कहा कि कुछ मामले संसद के लिए होते हैं और अदालतें महिलाओं के शादी की उम्र पर कानून नहीं बना सकती हैं। चीफ जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि अदालत संसद को विधेयक पारित करने के लिए आदेश भी नहीं दे सकती है। इससे पहले वर्कप्लेस पर यौन शोषण से संबंधित विशाखा केस के बाद से ऐसा देखा गया था कि सुप्रीम कोर्ट महिलाओं के अधिकारों की बात करते हुए जुडिशल एक्टिविज्म की तरह पेश आ रहा था। अब उसने महिलाओं के मुद्दे पर ही दूरी बना ली।
शादी की एक समान उम्र का मामला
वकील अश्विनी उपाध्याय ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर पुरुषों और महिलाओं के लिए शादी की कानूनी उम्र सीमा एक समान करने की मांग की थी। दरअसल, अपने देश में पुरुषों को 21 साल की उम्र में शादी करने की अनुमति है जबकि महिलाओं के लिए शादी की न्यूनतम उम्र सीमा 18 साल है। चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ और जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जेबी पारदीवाला की पीठ ने दिल्ली हाई कोर्ट से ट्रांसफर किए गए इस मामले की सुनवाई की। सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा, ‘क्या हम शादी की उम्र 18 साल को खत्म कर सकते हैं? अगर हम इसे खत्म करते हैं तो किसी भी उम्र की लड़की और महिला की शादी हो सकती है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट उनकी शादी की उम्र 21 साल करने के लिए कानून नहीं बना सकता।’
हमें संसद पर छोड़ना चाहिए…
CJI की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा, ‘ये ऐसे मामले हैं जिसे हमें संसद और सरकार पर छोड़ना चाहिए। हम संविधान के एकमात्र संरक्षक नहीं हैं। वैसे, महिला और पुरुष के शादी की एक समान उम्र होनी चाहिए लेकिन इसे विधायिका और सरकार के विवेक पर छोड़ना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट न तो संसद को निर्देश दे सकती है और न ही कानून बना सकती है।’
बाद में अश्विनी उपाध्याय ने कहा कि इससे अच्छा होता कि मामला दिल्ली हाई कोर्ट में ही रहता। सुप्रीम कोर्ट में केस ट्रांसफर करके इसे खारिज करने का क्या मतलब है।
दिलचस्प है कि विशाखा केस में सरकार ने कानून नहीं बनाया था लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ‘विशाखा गाइडलाइंस’ के तहत आदेश दे दिया था। इसे देश में कानून की तरह ही लागू किया गया। यह 12 पॉइंट्स की गाइडलाइंस है। 1997 में कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन शोषण से जुड़ा यह चर्चित फैसला था। तब सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, ‘हम निर्देश देते हैं कि उपरोक्त गाइडलाइंस और नियमों को कार्यस्थल पर महिलाओं को लैगिंक समानता के अधिकार के तहत पूरी सख्ती से लागू किया जाए। ये निर्देश बाध्यकारी रहेंगे, जबतक कि उपयुक्त कानून नहीं बन जाता।’
यह इस तरह का इकलौता उदाहरण नहीं है। 20 हफ्ते के भ्रूण को गिराने (MTP) की अवधि को बढ़ाकर 24 हफ्ते किया गया, जिसमें शर्त यह है कि दो एक्सपर्ट मां की सेफ्टी की बात करते हों। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट ने 24 हफ्ते बाद गर्भपात कराने की अनुमति देने से संबंधित कई फैसले दिए। सबरीमाला मंदिर में सुप्रीम कोर्ट ने 10-50 साल की उम्र की महिलाओं को प्रवेश देने की भी अनुमति दी थी।