सोलह फरवरी को उस शख्सियत की डेथ एनिवर्सरी है, जो अगर नहीं होता तो भारतीय सिनेमा का जन्म भी नहीं होता। तीस अप्रैल 1870 को उस महान हस्ती का जन्म हुआ था, जिसने भारतीय सिनेमा की नींव रखी और लोगों को बताया कि फिल्म क्या होती है। यहां बात हो रही है दादासाहेब फाल्के की, जिन्हें ‘भारतीय सिनेमा का पितामह’ कहा जाता है। आपको जानकर हैरानी होगी कि दादासाहेब फाल्के को शुरुआत में दूर-दूर तक इस बात का अहसास नहीं था कि फिल्म नाम की भी कोई चीज होती है। वह तो एक फोटोग्राफर बनना चाहते थे। इसी ख्वाहिश के साथ दादासाहेब फाल्के ने 1890 में ऑइल और वॉटर कलर पेंटिंग का कोर्स किया। बाद में उन्होंने एक फिल्म कैमरा खरीद लिया और फोटोग्राफी के साथ एक्सपेरिमेंट करना शुरू कर दिया।
पेटिंग का कोर्स, मालिक ने मुफ्त में दी जगह
दादासाहेब फाल्के ने कला भवन से ऑइल और वॉटर कलर पेंटिंग का कोर्स करने के बाद वहां के प्रिंसिपल गज्जर के निर्देशन में फोटोग्राफी के बाकी तरीके और तकनीक सीखीं। गज्जर ने दादासाहेब फाल्के का हुनर देखते हुए उन्हें कला भवन की लेब और फोटो स्टूडियो मुफ्त में इस्तेमाल करने के लिए दे दिए। यहां उन्होंने ‘श्री फाल्के’ नाम से फोटो प्रिटिंग और उन्हें उकेरने का काम शुरू कर दिया। भले ही दादासाहेब फाल्के खूब टैलेंटेड थे और फोटोग्राफी से लेकर प्रिटिंग और आर्किटेक्चर तक का काम जानते थे, बावजूद इसके उनके पास कमाई का स्थायी जरिया नहीं था। गुजारा करने और पेट भरने में दादासाहेब फाल्के को काफी मुश्किल हो रही थी।
बड़ौदा में फैली इस अफवाह से चौपट हुआ काम
ऐसे में दादासाहेब फाल्के ने फोटोग्राफर बनने का फैसला किया और फिर गोधरा चले गए। यहां एक फैमिली ने उन्हें काम करने के लिए स्टूडियो के लिए मुफ्त में जगह दिलवा दी। लेकिन दादासाहेब का इससे पहले काम सही से जमता उनकी पत्नी और बच्चे की मौत हो गुई। दुखी दादासाहेब फाल्के फिर उस जगह को छोड़कर बड़ोदा चले और वहीं अपना काम जमाने का फैसला किया। लेकिन वहां अचानक ही यह अफवाह फैल गई कि दादासाहेब फाल्के का कैमरा आदमी के शरीर से सारी एनर्जी खींच लेता है और फिर उस आदमी की मौत हो जाती है। इस वजह से हर कोई दादासाहेब के पास आने से कतराने लगा। जो भी दादासाहेब का कैमरा देखता, दूर भागता। इस वजह से दादासाहेब का फोटोग्राफी का काम ठप पड़ गया और उन्हें गुजारा करने में दिक्कत होने लगी।
स्टेज शोज के पर्दे रंगकर किया गुजारा
थक-हारकर दादासाहेब फाल्के को फोटोग्राफी का काम छोड़कर पर्दे रंगने का काम करना पड़ा। वह ड्रामा कंपनियों में स्टेज के पर्दों पर रंग-रोगन करते और उससे जो भी पैसे मिलते, पेट भरते। ड्रामा कंपनियों के साथ काम करके दादासाहेब फाल्के को ड्रामा प्रोडक्शन में थोड़ी सी ट्रेनिंग मिली। यहीं से फिर वह छोटे-मोटे रोल करने लगे और जाने कि ड्रामा, एक्टिंग जैसी भी कोई चीज होती है।
दादासाहेब फाल्के की 1944 में मौत
दादासाहेब फाल्के ने फिर फिल्ममेकिंग की ट्रेनिंग ली और तमाम मुश्किलों का सामना करते हुए देश की पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ बनाई। इस फिल्म को बनाने में जहां दादासाहेब फाल्के ने अपनी इंश्योरेंस पॉलिसी तक खत्म कर दीं, वहीं पत्नी को जूलरी तक गिरवी रखनी पड़ी। दादासाहेब फाल्के ने फिर कई फिल्में बनाईं। बाद में दादासाहेब फाल्के ने 1932 में रिटायरमेंट ले ली। 16 फरवरी 1944 में उनका निधन हो गया।