नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने एक बेहद अहम फैसले में कहा है कि मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रधानमंत्री, लोकसभा के नेता प्रतिपक्ष और चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया की कमिटी की सलाह पर की जाएगी। सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि इस कमिटी की सलाह पर राष्ट्रपति चुनाव आयुक्तों और मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति करेंगे। जस्टिस केएम जोसेफ की अगुआई वाली 5 जजों की संवैधानिक बेंच ने एक मत से दिए फैसले में कहा है कि जब तक चुनाव आयुक्तों और मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के लिए कानून नहीं बन जाता तब तक सुप्रीम कोर्ट की तरफ से दी गई व्यवस्था लागू रहेगी। चुनाव में शुद्धता सुनिश्चित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का दूरगामी असर होगा। पांच जजों की बेंच ने कहा है कि चुनावी प्रक्रिया का काफी समय से बेरहमी से दुरुपयोग निश्चित तौर पर लोकतंत्र के लिए गंभीर है। लोकतंत्र में चुनाव में शुद्धता व निष्पक्षता निश्चित तौर पर बकररार रहना होगा नहीं तो इसके विनाशकारी परिणाम होंगे। संयोग से लॉ कमिशन ने 2015 में ही सिफारिश की थी कि चुनाव आयुक्तों और मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के लिए कलीजियम जैसा कोई सिस्टम हो जिसमें पीएम, नेता प्रतिपक्ष और सीजेआई सदस्य हों।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में ये भी साफ किया है कि अगर लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष न हों तो सबसे बड़े विरोधी दल के नेता कमिटी में होंगे। सुप्रीम कोर्ट ने 23 अक्टूबर 2018 को उस जनहित याचिका को संवैधानिक बेंच को रेफर कर दिया था जिसमें कहा गया है कि चुनाव आयुक्तों और मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के लिए कलीजियम की तरह सिस्टम होना चाहिए। इस मामले में संवैधानिक बेंच ने गुरुवार को दिए फैसले में कहा कि चुनावी प्रक्रिया में शुद्धता होनी चाहिए। चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर जोर देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि लोकतंत्र में यह लोगों की इच्छा से जुड़ा हुआ है। अदालत ने कहा कि लोकतंत्र में निश्चित तौर पर फ्री और फेयर चुनाव और पवित्रता सुनिश्चित करना चुनाव आयोग के लिए जरूरी है। चुनाव की निष्पक्षता बनाई रखनी चाहिए नहीं तो इसके विनाशकारी परिणाम होंगे।
केंद्र में तमाम पार्टियों की सरकार रही लेकिन किसी ने भी नियुक्ति के लिए कानून नहीं बनाए
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस केएम जोसेफ, जस्टिस अजय रस्तोगी, जस्टिस अनिरुद्ध बोस, जस्टिस रिषिकेश राय और जस्टिस सीटी रविकुमार की बेंच ने कहा कि कई राजनीतिक पार्टियां पावर में आईं लेकिन किसी ने भी चुनाव आयुक्तों और मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति प्रक्रिया के लिए कानून नहीं बनाए। कानून में ये कमी (गैप) है। शीर्ष अदालत ने कहा कि अनुच्छेद-324 के तहत इसको लेकर कानूनी प्रावधान जरूरी है और उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। बेंच ने इस बात पर जोर दिया कि चुनाव आयोग इस बात को लेकर बाध्य है कि स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव हों और कानूनी प्रक्रिया के तहत चुनाव हो।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि चुनाव आयोग को तमाम तरह के एग्जिक्यूटिव आधिपत्य के दायरे से अलग रखना होगा। चुनाव आयोग के खतरे में होने से घातक स्थिति बन जाएगी और वह अपने प्रभावकारी व कुशल कार्य से दूर हो जाएगा। कोर्ट ने कहा कि लोकतंत्र तभी सफल हो सकता है जब चुनावी प्रक्रिया निष्पक्ष और स्वतंत्र बनाए रखने के लिए हितधारक काम करेंगे और यही लोगों की इच्छा भी है। कोर्ट ने इस बात पर खेद जताया कि काफी समय से चुनावी प्रक्रिया का कई बार गलत इस्तेमाल किया गया है। मीडिया के रोल पर भी सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी करते हए कहा कि मीडिया का बड़ा तबका मौजूदा समय में अपने कर्तव्य को त्याग चुका है और वह पक्षपातपूर्ण हो चुका है।
72 सालों में कानून बनाने पर गौर नहीं किया गया
शीर्ष अदालत ने कहा कि राजनीतिक पार्टियों का गोल होता है कि वह पावर में आए। लेकिन सरकार का कंडक्ट हमेशा फेयर होना चाहिए। चुनाव आयोग हमेशा स्वतंत्र हो। साथ ही जस्टिस रस्तोगी ने कहा कि चुनाव आयुक्त को हटाने का ग्राउंड भी वैसा ही होना चाहिए जैसा मुख्य चुनाव आयुक्त का होता है। सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दाखिल कर मांग की गई थी कि चीफ इलेक्शन कमिश्नर की नियुक्ति के लिए कलीजियम की तरह सिस्टम होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने पिछली सुनवाई के दौरान कहा था कि चुनाव आयुक्तों और चीफ इलेक्शन कमिश्नर की नियुक्ति के मामले में संविधान की चुप्पी और कानून की कमी के कारण जो रवैया (शोषण) अपनाया जा रहा है वह परेशान करने वाली परंपरा है। सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संवैधानिक बेंच ने मामले की सुनवाई के दौरान संविधान के अनुच्छेद-324 का हवाला दिया और कहा था कि यह अनुच्छेद चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की बात करता है लेकिन यह प्रावधान नियुक्ति की प्रक्रिया के बारे में बात नहीं करता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इस बारे में कानून बनाने पर गौर किया जाना चाहिए था लेकिन 72 साल में ऐसा नहीं किया गया और यही कारण है कि केंद्र सरकार ने इस प्रक्रिया का शोषण किया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 2004 के बाद से कोई भी मुख्य चुनाव आयुक्त छह साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए। शीर्ष अदालत ने कहा था कि यूपीए के 10 साल के कार्यकाल में 6 मुख्य चुनाव आयुक्त बनाए गए। जबकि एनडीए के 8 साल के कार्यकाल में 8 मुख्य चुनाव आयुक्त बनाए गए। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि यहां तक कि संस्थान के मुखिया के तौर पर चीफ इलेक्शन कमिश्नर जो भी इनका खंडित कार्यकाल होता है उसमें वह कुछ ठोस नहीं कर पाते हैं।
केंद्र सरकार का क्या रहा था स्टैंड
सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार की ओर से पेश अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमानी ने कहा था कि मौजूदा प्रक्रिया के तहत मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति राष्ट्रपति करते हैं और उसे गैर संवैधानिक नहीं कहा जा सकता है। कोर्ट उसे निरस्त नहीं कर सकता है। संविधान सभा ने इसी मॉडल को स्वीकार किया था और ऐसे में शीर्ष अदालत यह नहीं कह सकता है कि इस मौजूदा मॉडल या प्रक्रिया पर विचार की जरूरत है। इस बारे में संविधान में कोई प्रावधान नहीं है जिसकी व्याख्या की जाए।
क्या थी याचिका में मांग
सुप्रीम कोर्ट ने 23 अक्टूबर 2018 को उस जनहित याचिका को संवैधानिक बेंच को रेफर कर दिया था जिसमें कहा गया है कि चुनाव आयुक्तों और मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के लिए कलीजियम की तरह सिस्टम होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दाखिल कर कहा गया था कि केंद्र सरकार द्वारा चुनाव आयुक्तों और मुख्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति करना संविधान के अनुच्छेद-14 व अनुच्छेद 324 (2) का उल्लंघन है। याचिका में कहा गया था कि इन नियुक्तियों के लिए निर्देश दिया जाए कि एक स्वतंत्र कलीजियम सिस्टम हो या स्वतंत्र न निष्पक्ष सेलेक्शन कमिटी हो जो चुनाव आयुक्तों की नियुक्तियां करे। लॉ कमिशन ने 255 वीं रिपोर्ट में मार्च 2015 में कहा था कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति स्वतंत्र कलीजियम या सिलेक्शन कमिटी के जरिए होना चाहिए। कलीजियम में पीएम, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया को रखने की सिफारिश की गई थी।
क्या थी मौजूदा व्यवस्था
मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्त की नियुक्ति राष्ट्रपति की ओर से जारी नोटिफिकेशन से होता है। इसके लिए लॉ मिनिस्ट्री नामों की सिफारिश पीएम को करता है और फिर पीएम की मंजूरी के बाद राष्ट्रपति से नियुक्ति पर मुहर लगाई जाती है। आमतौर पर ब्यूरोक्रेट की नियुक्ति इस पद पर की जाती है। इसका अधिकतम कार्यकाल छह साल होता है या 65 साल की उम्र तक इस पर चुनाव आयुक्त बने रह सकते हैं इनमें जो पहले आता है उस लागू होता है। चुनाव आयुक्त को संसद से महाभियोग के जरिए ही हटाया जा सकता है।