केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने ‘एक देश-एक चुनाव’ के प्लान पर एक कदम आगे बढ़ाते हुए अब उसे अमलीजामा पहनाना शुरू कर दिया है. पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में बनी समिति की रिपोर्ट के आधार पर मोदी सरकार ने कैबिनेट की मंजूरी देकर ‘एक देश एक चुनाव’ को हरी झंडी दे दी है. इसके बाद संसद, संविधान संशोधन और राज्यों के सहयोग के साथ मोदी सरकार आगे इस दिशा में रास्ता तय करेगी. ऐसे में लोकसभा और राज्यों के विधानसभा चुनाव 2029 में एक साथ कराने का प्लान है.
हालांकि, ‘एक देश एक चुनाव’ का मॉडल भारत में नया नहीं बल्कि आजादी से बाद से 1967 तक लोकसभा और राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ हुआ करते थे. देश में लगातार 17 सालों तक ‘एक देश और एक चुनाव’ की प्रक्रिया रही, लेकिन उस पर ब्रेक लगाने का काम इंदिरा गांधी ने किया. इसके अलावा कोई राज्य सरकारों के गिरने या भंग किए जाने के चलते देश में एक चुनाव की प्रक्रिया टूटने की बड़ी वजह बन गई.
1967 के बाद बदले राजनीतिक हालात
आजादी के बाद देश में पहली बार साल 1951-52 में चुनाव हुए थे. 1951-52 में लोकसभा के साथ ही सभी राज्यों की विधानसभा के चुनाव भी कराए गए थे. इसके बाद 1957, 1962 और 1967 में भी एक साथ ही लोकसभा और राज्यों के विधानसभा चुनाव कराए गए थे. इस तरह शुरुआत के चार चुनावों में लोकसभा और राज्यों के विधानसभा एक साथ हुए हैं, लेकिन क्षेत्रीय दलों के उभरने और कुछ राज्यों में विधानसभा भंग किए जाने के चलते ही उस पर ग्रहण लगना शुरू हो गया.
देश में 1951 से लेकर 1967 तक यानि पहली, दूसरी, तीसरी लोकसभा ने पूरे पांच साल का कार्यकाल पूरा किया. 1968 और 1969 में कुछ राज्यों के विधानसभाओं के समय से पहले विघटन और कार्यकाल विस्तार के परिणामस्वरूप ही देश में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए अलग-अलग चुनाव हुए हैं. इसके चलते ही एक देश एक साथ चुनाव कराने का चक्र बाधित हो गया.
केरल में कराए गए मध्यवधि चुनाव
आजादी के बाद कांग्रेस को पहला झटका केरल में लगा था. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी केरल में कांग्रेस के सामने एक बड़ी चुनौती बनकर ऐसी उभरी कि राज्य की सत्ता से ही बाहर कर दिया. लोकसभा के साथ कराए गए राज्य विधानसभा चुनाव में लेफ्ट को केरल की 126 विधानसभा सीटों में से 60 सीटों पर जीत मिली. लेफ्ट ने 5 निर्दलीय विधायकों के समर्थन के साथ सरकार बना ली और ईएमएस नंबूदरीपाद मुख्यमंत्री बने.
नंबूदरीपाद देश के पहले गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री हैं, लेकिन वह अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सके. महज दो साल बाद ही नंबूदरीपाद सरकार को बर्खास्त कर दिया गया. इस तरह से 1960 में केरल को मध्यवधि चुनाव का सामना करना पड़ा. इस तरह नए सिरे से विधानसभा के चुनाव हुए. लेफ्ट को करारी मात खानी पड़ी और कांग्रेस, सोशलिस्ट पार्टी और मुस्लिम लीग गठबंधन ने सरकार बना लिया. केरल पहला राज्य रहा, जहां पर मध्यावधि चुनाव कराए गए और उसके आगे के 5 साल का कार्यकाल की अवधि बदल गई.
इंदिरा गांधी के फैसले से लगा ब्रेक
1951 से लेकर 1967 तक एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनाव हुए, लेकिन जब पहली बार लोकसभा चुनाव अलग से कराया गया तो उसके पीछे इंदिरा गांधी का अहम रोल था. उस समय केंद्र में इंदिरा गांधी की सरकार थी. इंदिरा ने अपनी ही पार्टी से बगावत करके कांग्रेस के 2 टुकड़े कर दिया था. देश में लोकसभा चुनाव में 15 महीने का वक्त बचा था. इंदिरा गांधी की नई पार्टी कांग्रेस (आर) नए सिरे से बहुमत हासिल करके अपने प्रगतिशील सुधारों को लागू करना चाहती थी.
इंदिरा गांधी कांग्रेस के पुराने नेताओं की वजह से प्रगतिशील सुधार को लागू नहीं कर पा रही थी. इसके लिए इंदिरा और उनकी पार्टी ने समय से पहले चुनावों में जाने का फैसला लिया और 1970 में लोकसभा भंग करवा दी थी. इस तरह तय समय से 15 महीने पहले ही 1971 में लोकसभा चुनाव करवा दिए थे. इसके अलावा कई राज्य सरकारों को विभिन्न कारणों से भंग करने के चलते भी ‘एक देश और एक चुनाव’ का क्रम टूट गया था.
इंदिरा गांधी ने आखिर क्यों उठाया कदम
इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब ‘इंडिया आफ्टर नेहरू’ में लिखते हैं कि समय से पहले आम चुनाव करवाकर इंदिरा गांधी ने बड़ी चतुराई से अपने आपको विधानसभा चुनावों से अलग कर लिया था, क्योंकि दोनों चुनाव साथ-साथ होने की स्थिति में जातीय और नस्लीयता की भावना राष्ट्रीय मुद्दों को प्रभावित कर देती थी. 1967 में एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनाव होने के चलते कांग्रेस को बहुत नुकसान उठाना पड़ा था. खासतौर पर केरल, ओडिशा, तमिलनाडु और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में स्थानीय मुद्दों ने बहुत असर डाला था. इसके चलते ही इंदिरा ने तय किया था कि पहले आम चुनाव करवाकर उन्होंने इन दोनों ही मुद्दों को अलग कर लिया था.
इंदिरा ने चुनाव प्रचार की कमान पूरी तरह से अपने हाथ में रखा था. दिसंबर 1970 में लोकसभा भंग होने के बाद से चुनाव तक इंदिरा गांधी ने 10 हफ्ते में 58 हजार किमी से ज्यादा की यात्रा तय की. इस दौरान उन्होंने 300 से ज्यादा चुनावी रैलियों को भी संबोधित किया था. तब 518 लोकसभा सीटों में से इंदिरा गांधी की कांग्रेस (आर) को 352 सीटों पर जीत मिली थी जबकि सीपीएम को सिर्फ 25 सीटें, सीपीआई को 23 सीटें, जनसंघ को 22 और कांग्रेस (ओ) को 16 सीटों पर जीत मिली थी. लोकसभा चुनाव में जीत दर्ज करने वाली इंदिरा की कांग्रेस (आर) आगे चलकर कांग्रेस (आई) बनी और पार्टी का चुनाव चिह्न हाथ का पंजा हो गया. इसके बाद से लोकसभा और विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया पूरी तरह से खत्म ही हो गई.
‘एक देश-एक चुनाव’ की बात उठी
इंदिरा गांधी ने साल 1975 में देश में इमरजेंसी लगा दिया, उसके बाद 1977 में चुनाव हुए. कांग्रेस को करारी मात खानी पड़ी और मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी. देश में पहली बार गैर-कांग्रेसी सरकार बनी थी. हालांकि, यह सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी. 1980 में फिर से देश में लोकसभा चुनाव हुए.
कांग्रेस ने पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में वापसी की और इंदिरा गांधी फिर से प्रधानमंत्री बनी. इसके बाद दोबारा फिर से एक साथ चुनाव कराने की संभावना 1983 में चुनाव आयोग की वार्षिक रिपोर्ट में उठाई गई थी. इसके बाद तीन अन्य रिपोर्ट में इस अवधारणा से जुड़े और पहलुओं पर गहनता से अध्ययन किया गया.
विधि आयोग की 170वीं रिपोर्ट में क्या
विधि आयोग की रिपोर्ट (1999) जस्टिस बीपी जीवन रेड्डी की अध्यक्षता वाले विधि आयोग ने मई 1999 में अपनी 170वीं रिपोर्ट में कहा था कि हर साल चुनाव कराने के चक्र को खत्म किया जाना चाहिए. नियम बनाना चाहिए कि पांच साल में ‘एक बार एक साथ’ लोकसभा और विधानसभा चुनाव हों. इसके बाद साल 2015 में डॉ. ईएम सुदर्शन नचियप्पन की अध्यक्षता में संसदीय स्थायी समिति बनाई गई थी. इस समिति ने 17 दिसंबर, 2015 को ‘लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए एक साथ चुनाव कराने की व्यवहारिकता पर अपनी रिपोर्ट सामने रखी.
मोदी सरकार ने ‘एक देश, एक चुनाव’ के लिए सितंबर 2023 में पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई थी. कमेटी ने इस साल की शुरुआत में अपनी रिपोर्ट सौंप दी है, जिस पर मोदी कैबिनेट में बुधवार को अपनी मंजूरी भी दे दी. ऐसे में मोदी सरकार शीतकालीन शत्र में ‘एक देश एक चुनाव’ से जुड़े विधेयक को संसद में पेश कर सकती है. इसके बाद संविधान में संसोधन, संसद से पास होने और राज्य सरकारों की स्वीकृति मिल जाती है तो फिर से देश में एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनाव हो सकेंगे.