नई दिल्ली। बाटला हाउस मुठभेड़ में आरिज खान की फांसी की सजा को भले ही हाई कोर्ट ने आजीवन कारावास में बदल दिया, लेकिन संगीन अपराध में उसकी दाेषसिद्धी को बरकरार रखा। निचली अदालत से लेकर हाई काेर्ट तक बाटला हाउस मुठभेड़ में दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने चश्मदीद की गवाही से लेकर वैज्ञानिक साक्ष्यों के माध्यम से साबित किया कि आरिज न सिर्फ घटनास्थल पर मौजूद था, बल्कि उसने इंस्पेक्टर मोहन चंद्र शर्मा की हत्या की थी।
अदालत ने आरिज खान को सात बिंदुओं के आधार पर दोषी ठहराने के निचली अदालत के निर्णय को बरकरार रखा। चश्मदीद घायल हवलदार की गवाही सर्वाेपरि अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष के अनुसार घटना दो हिस्से में हुई। पहले भाग में इंस्पेक्टर शर्मा के नेतृत्व में टीम की मुठभेड़ हुई और इसमें मोहम्मद आतिफ अमीन मारा गया, जबकि दाे लोग मौके से भागे। वहीं, दूसरे भाग में उपायुक्त संजीव कुमार यादव के नेतृत्व में टीम घर में घुसी और मोहम्मद साजिद मारा गया।
अदालत ने स्पष्ट रूप से की पहचान
बाटला हाउस के घर के आरिज की मौजूदगी पर उसके अधिवक्ता द्वारा उठाए गए सवाल पर अदालत ने कहा कि यह स्थापित कानून है कि एक घायल चश्मदीद गवाह का बयान सर्वापरि है। वर्तमान मामले में मुठभेड़ के पहले भाग में घायल हुए हवलदार बलवंत ने आरिज खान की अदालत में स्पष्ट रूप से पहचान की है।
आरिज से संबंधित वस्तु मिली अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष के अनुसार पुलिस को मोहम्मद सैफ के पास से आरिज का पर्स, दो पासपोर्ट साइज फोटो, उसकी बीटेक की दो मार्कशीट और आजमगढ़ के ज्योति नारायण स्कूल से जारी चरित्र प्रमाण पत्र व 10वीं व 12वीं का उत्तीर्ण प्रमाण पत्र मिला था।
अविश्वास करने का कोई ठोस कारण नहीं…
अदालत ने कहा कि आरिज ने उक्त वस्तुएं खोने या चोरी होने या वस्तुओं को पुलिस द्वारा किसी भी मौके पर अधिकारी द्वारा ले जाने की बात नहीं कही। ऐसे में उक्त वस्तुओं की घटना की तिथि पर की गई बरामदगी पर अविश्वास करने का कोई ठोस कारण नहीं है।
इंटरसेप्ट किए गए फोन काल रिकार्ड से हुई सीडीआर की पुष्टि अभियोजन पक्ष ने मौके पर आरिज की उपस्थिति को साबित करने के लिए मोहम्मद आतिफ अमीन के मोबाइल नंबर की काल डिटेल रिकार्ड(सीडीआर) पेश की। इस फोन से एक काल की गई थी और अभियोजन पक्ष ने दावा किया कि फोन पर पीछे से आरिज की आवाज सुनाई दी थी।
गवाहों को शामिल ना होने का तर्क ठुकराया
अभियोजन पक्ष ने आरिज के आवाज के नमूने की तुलना करने के लिए रिकार्ड की गई बातचीत को इंटरसेप्ट किया था। उक्त तथ्यों को नोट करते हुए अदालत ने माना कि सीडीआर की पुष्टि इंटरसेप्ट किए गए फोन कॉल के रिकार्ड से होती है। सार्वजनिक गवाहों का शामिल न होने का तर्क ठुकराया अदालत ने पूरे घटनाक्रम में सार्वजनिक गवाहों को शामिल नहीं करने के तर्क को ठुकरा दिया। अदालत ने कहा कि ऑपरेशन के पहले या बाद पुलिस दल द्वारा सार्वजनिक गवाहों के शामिल न होने का आधार नहीं है।
आरिज को दोषी करार देने का आधार बने ये सात प्वाइंट, HC ने इस वजह से रद की फांसी की सजा
बाटला हाउस मुठभेड़ में आरिज खान की फांसी की सजा को भले ही हाई कोर्ट ने आजीवन कारावास में बदल दिया लेकिन संगीन अपराध में उसकी दाेषसिद्धी को बरकरार रखा। बाटला हाउस के घर के आरिज की मौजूदगी पर उसके अधिवक्ता द्वारा उठाए गए सवाल पर अदालत ने कहा कि यह स्थापित कानून है कि एक घायल चश्मदीद गवाह का बयान सर्वापरि है।
आरिज खान की फांसी की सजा को भले ही हाई कोर्ट ने आजीवन कारावास में बदल दिया
उपायुक्त संजीव कुमार यादव के नेतृत्व में टीम घर में घुसी और मोहम्मद साजिद मारा गया।
विनीत त्रिपाठी, नई दिल्ली। बाटला हाउस मुठभेड़ में आरिज खान की फांसी की सजा को भले ही हाई कोर्ट ने आजीवन कारावास में बदल दिया, लेकिन संगीन अपराध में उसकी दाेषसिद्धी को बरकरार रखा। निचली अदालत से लेकर हाई काेर्ट तक बाटला हाउस मुठभेड़ में दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने चश्मदीद की गवाही से लेकर वैज्ञानिक साक्ष्यों के माध्यम से साबित किया कि आरिज न सिर्फ घटनास्थल पर मौजूद था, बल्कि उसने इंस्पेक्टर मोहन चंद्र शर्मा की हत्या की थी।
अदालत ने आरिज खान को सात बिंदुओं के आधार पर दोषी ठहराने के निचली अदालत के निर्णय को बरकरार रखा। चश्मदीद घायल हवलदार की गवाही सर्वाेपरि अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष के अनुसार घटना दो हिस्से में हुई। पहले भाग में इंस्पेक्टर शर्मा के नेतृत्व में टीम की मुठभेड़ हुई और इसमें मोहम्मद आतिफ अमीन मारा गया, जबकि दाे लोग मौके से भागे। वहीं, दूसरे भाग में उपायुक्त संजीव कुमार यादव के नेतृत्व में टीम घर में घुसी और मोहम्मद साजिद मारा गया।
अदालत ने स्पष्ट रूप से की पहचान
बाटला हाउस के घर के आरिज की मौजूदगी पर उसके अधिवक्ता द्वारा उठाए गए सवाल पर अदालत ने कहा कि यह स्थापित कानून है कि एक घायल चश्मदीद गवाह का बयान सर्वापरि है। वर्तमान मामले में मुठभेड़ के पहले भाग में घायल हुए हवलदार बलवंत ने आरिज खान की अदालत में स्पष्ट रूप से पहचान की है।
आरिज से संबंधित वस्तु मिली अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष के अनुसार पुलिस को मोहम्मद सैफ के पास से आरिज का पर्स, दो पासपोर्ट साइज फोटो, उसकी बीटेक की दो मार्कशीट और आजमगढ़ के ज्योति नारायण स्कूल से जारी चरित्र प्रमाण पत्र व 10वीं व 12वीं का उत्तीर्ण प्रमाण पत्र मिला था।
अविश्वास करने का कोई ठोस कारण नहीं…
अदालत ने कहा कि आरिज ने उक्त वस्तुएं खोने या चोरी होने या वस्तुओं को पुलिस द्वारा किसी भी मौके पर अधिकारी द्वारा ले जाने की बात नहीं कही। ऐसे में उक्त वस्तुओं की घटना की तिथि पर की गई बरामदगी पर अविश्वास करने का कोई ठोस कारण नहीं है।
इंटरसेप्ट किए गए फोन काल रिकार्ड से हुई सीडीआर की पुष्टि अभियोजन पक्ष ने मौके पर आरिज की उपस्थिति को साबित करने के लिए मोहम्मद आतिफ अमीन के मोबाइल नंबर की काल डिटेल रिकार्ड(सीडीआर) पेश की। इस फोन से एक काल की गई थी और अभियोजन पक्ष ने दावा किया कि फोन पर पीछे से आरिज की आवाज सुनाई दी थी।
गवाहों को शामिल ना होने का तर्क ठुकराया
अभियोजन पक्ष ने आरिज के आवाज के नमूने की तुलना करने के लिए रिकार्ड की गई बातचीत को इंटरसेप्ट किया था। उक्त तथ्यों को नोट करते हुए अदालत ने माना कि सीडीआर की पुष्टि इंटरसेप्ट किए गए फोन कॉल के रिकार्ड से होती है। सार्वजनिक गवाहों का शामिल न होने का तर्क ठुकराया अदालत ने पूरे घटनाक्रम में सार्वजनिक गवाहों को शामिल नहीं करने के तर्क को ठुकरा दिया। अदालत ने कहा कि ऑपरेशन के पहले या बाद पुलिस दल द्वारा सार्वजनिक गवाहों के शामिल न होने का आधार नहीं है।
अदालत पुलिस द्वारा दिए गए बयान से सहमत है कि इस तरह के आपरेशन में सार्वजनिक गवाह का शामिल होना उनके जीवन को खतरे में डाला जा सकता था। देरी से प्राथिमकी का तर्क भी ठुकराया घटना के तथ्यों को तोड़-मड़ोकर पांच घंटे की देरी से प्राथमिकी करने की आरिज के अधिवक्ता की दलील को भी अदालत ने ठुकरा दिया। अदालत ने कहा कि ऐसा कुछ भी पेश नहीं किया गया जिससे यह साबित हो सके कि घर से दो भागने वालों की बात सामने लाने से अभियोजन पक्ष को कोई फायदा पहुंचेगा।
इतना ही नहीं बचाव पक्ष का मामला ही यही है कि प्राथमिकी के दौरान अभियोजन पक्ष को आरिज का नाम नहीं पता था। बैलिस्टिक परीक्षा रिपोर्ट को माना सही आरिज के अधिवक्ता ने तर्क दिया कि आखों देखे सुबूत अस्वीकार्य हैं क्योंकि बैलिस्टिक साक्ष्य इसका समर्थन नहीं करते हैं।
अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष द्वारा पेश किए गए चार्ट के अवलोकन से पता चलता है कि 19 नवंबर, 2008 को फायर की गई एक गोली टूटी फूटी हालत में मिली है और चली गोलियों के तीन छोटे टुकड़े 13 अक्टूबर, 2008 को मिले थे, जोकि बरामद किए गए किसी भी हथियार की नहीं है और इसलिए उनका कोई हिसाब नहीं है।
ऐसे में आरिज का यह तर्क मान्य नहीं है कि आरिज की उपस्थिति के संबंध में चश्मदीद की गवाही उसे फंसाने के लिए दी गई है। आरिज के भागने की संभावना आरिज की मौके से भागने की स्थिति पर अधिवक्ता द्वारा उठाए गए सवाल पर अदालत ने कहा कि चश्मदीद की गवाही के रूप में साक्ष्य मौजूद हैं। इसके अलावा वैज्ञानिक और तकनीकी माध्यम से गवाही और अन्य पुष्ट साक्ष्य को देखते हुए ठोस व विश्वसनीय साक्ष्य के जरिए यह साबित करने की जिम्मेदारी अपीलकर्ता पर है कि वह घटना की तारीख और समय घटनास्थल पर मौजूद था या नहीं।
जब्ती मेमो और जैविक जांच रिपोर्ट में नहीं विसंगतियां अदालत ने कहा कि जब्ती के समय से फारेंसिक लैब में दस्तावेज की प्रक्रिया को देखा गया है। इसमें किसी तरह से कोई विसंगती नहीं मिली और न ही अन्यथा दिखाने के लिए अदालत के समक्ष रिकार्ड पर कुछ भी लाया गया।
इतना ही नहीं गवाहों से स्पष्टीकरण के बिंदु पर कोई जिरह नहीं की गई और अदालत की राय में कोई विसंगति नहीं है।
इन धाराओं में ठहराया गया दोषी
302 (हत्या) : फांसी की सजा, 10 लाख रुपये जुर्माना
307 (हत्या का प्रयास) : उम्रकैद, 20 हजार रुपये जुर्माना
धारा 186 (सरकारी कर्मचारी के काम में बाधा पहुंचाना)
तीन माह – 353 (सरकारी कर्मचारी पर हमला करना)
दो साल – 333 (सरकारी कर्मचारी को गंभीर रूप से चोटिल करना)
10 साल की कैद, 20 हजार रुपये जुर्माना – 174 ए (भगोड़ा घोषित होने के बावजूद पेश न होना)
सात साल की कैद, 10 हजार रुपये जुर्माना – शस्त्र अधिनियम की धारा 27
तीन साल की सजा, 50 हजार रुपये का जुर्माना हाई कोर्ट ने सजा रखी बरकरार, जुर्माना घटाया
302 (हत्या): फांसी की सजा, 50 हजार रुपये जुर्माना – 307 (हत्या का प्रयास): उम्रकैद, 20 हजार रुपये जुर्माना
धारा 186 (सरकारी कर्मचारी के काम में बाधा पहुंचाना)
तीन माह – 353 (सरकारी कर्मचारी पर हमला करना)
दो साल, दस हजार का जुर्माना – 333 (सरकारी कर्मचारी को गंभीर रूप से चोटिल करना)
सात साल की कैद, 10 हजार रुपये जुर्माना- 174 ए (भगोड़ा घोषित होने के बावजूद पेश न होना)
तीन साल की कैद, 10 हजार रुपये जुर्माना – शस्त्र अधिनियम की धारा 27
तीन साल की सजा, 15 हजार रुपये का जुर्माना
निचली अदालत ने माना था दुलर्भ में दुर्लभतम मामला निचली अदालत ने मृत्युदंड सुनाने हुए पूरे मामले को दुर्लभतम मामला करार दिया था। निचली अदालत ने कहा था कि अपराध की भयावहता, क्रूरता का आदेश और अपराध के पीछे गलत काम करने वाले की मानसिकता के साथ कई अन्य तथ्य इसे दुर्लभतम मामला बनाते हैं।
दोषी ने अपने घृणित कृत्य के कारण जीने का अधिकार खो दिया है और वह कानून के तहत प्रदान की गई अधिकतम सजा का हकदार है। यह भी कहा था कि यदि दोषी को मौत की सजा दी जाती है तो न्याय का हित पूरा होगा। निचली अदालत ने यह भी कहा कि बिना किसी उकसावे के पुलिसकर्मियों पर गोलीबारी के घृणित और क्रूर कृत्य से पता चलता है कि खान समाज के साथ ही राज्य का भी दुश्मन था।