नई दिल्ली: देश की राजनीति ने वह दौर भी देखा है जब इंदिरा गांधी ने अपनी ही पार्टी के घोषित उम्मीदवार के खिलाफ अपना राष्ट्रपति कैंडिडेट दे दिया था। न केवल उन्होंने अपने प्रत्याशी को चुनाव मैदान में उतारा बल्कि अपने विधायकों-सांसदों से ‘अंतरात्मा की आवाज’ पर वोट देने की अपील की। यह दौर 1969 का था। तब इंदिरा की सरकार और संगठन पर पकड़ मजबूत नहीं थी। ऐसे में जब तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन का अचानक निधन हो गया तो इंदिरा चाहती थीं कि राष्ट्रपति ऐसा हो जिससे उनका तालमेल ठीक रहे। उम्मीदवार तय करने के लिए संसदीय दल की बैठक बैंगलोर (आज बेंगलुरु) में बुलाई गई।
राष्ट्रपति उम्मीदवार पर एक राय नहीं बनी। वोटिंग हुई तो इंदिरा के साथ केवल बाबू जगजीवन राम और फखरुद्दीन अली अहमद ही रहे। संसदीय बोर्ड के बाकी पांच सदस्यों, पार्टी अध्यक्ष निजलिंगप्पा, के कामराज, एसके पाटिल, मोरारजी देसाई और यशवंत राव चव्हाण ने बहुमत से एन. संजीव रेड्डी का नाम उम्मीदवार के तौर पर घोषित कर दिया। इंदिरा के लिए यह असहज स्थिति थी। उनका तर्क था कि वीवी गिरि के नाम पर विपक्षी दलों के साथ सहमति बन चुकी है, इसलिए कांग्रेस वीवी गिरि को ही उम्मीदवार घोषित करे।
इंदिरा ने वीवी गिरि को पर्चा भरने के लिए तैयार किया और बाबू जगजीवन राम के साथ खुद उनकी प्रस्तावक बनकर यह संदेश साफ कर दिया कि वह वीवी गिरि के पक्ष में ही मतदान चाहती हैं। संगठन इंदिरा के विरोधी खेमे के हाथों में था। नतीजा यह हुआ कि गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश जैसे तमाम राज्यों ने संजीव रेड्डी को समर्थन दे दिया। इंदिरा के लिए यह कठिन दौर था क्योंकि अगर अब वीवी गिरि हारते तो इंदिरा के इस्तीफे तक की नौबत आ सकती थी। वीवी गिरि की स्थिति उत्तर प्रदेश से ही मजबूत हो सकती थी। इंदिरा ने खुद ही कमान संभाली।
हेमवती नंदन बहुगुणा जैसे लोगों से उन्होंने वीवी गिरि के पक्ष में माहौल बनाने को कहा। इंदिरा और पार्टी के आमने-सामने आने से पार्टी टूटती दिख रही थी। कमलापति त्रिपाठी तब यूपी कांग्रेस अध्यक्ष थे। तमाम लोगों के दखल के बाद कमलापति मान गए और उन्होंने मतदान के एक रोज पहले निजलिंगप्पा को तार भेजकर कांग्रेसियों को स्वतंत्र रूप से वोट का अधिकार देने की बात कही।
आत्मा की आवाज पर पड़े वोटों ने वीवी गिरि की नैया पार लगा दी थी। यूपी से उन्हें 181 वोट मिले थे जबकि रेड्डी को 139 वोट। इस राष्ट्रपति चुनाव में दो तथ्यों पर और गौर किया जाना चाहिए। एक, वीवी गिरि विपक्ष की भी पसंद थे। दूसरे, बैंकों के राष्ट्रीयकरण के फैसले ने सोशलिस्टों और साम्यवादियों को इंदिरा के पक्ष में ला खड़ा किया था।
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