सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए कलीजियम सिस्टम बनाए रखने या खत्म करने को लेकर ‘संसदीय संप्रुभता’ पर नए सिरे से बहस छिड़ी है। राज्यसभा में बतौर सभापति अपने पहले ही संबोधन में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून रद्द करने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश को उस जनादेश का असम्मान बताया, जिसकी संरक्षक लोकसभा और राज्यसभा है। हालांकि अधिकारों को लेकर यह टकराहट नई नहीं है। 1964 में विशेषाधिकार हनन को लेकर यूपी विधानसभा ने तो हाईकोर्ट के दो जजों को गिरफ्तार कर सदन में पेश करने का वॉरंट जारी कर दिया था।
बात यूपी विधानसभा के तीसरे कार्यकाल की है। सोशलिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता केशव सिंह ने गोरखपुर से लेकर विधानभवन के गलियारों तक एक पोस्टर चिपकाया, जिसमें कांग्रेस के विधायक नरसिंह नारायण पांडेय पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए थे। विधायक ने इसे विशेषाधिकार हनन मानते हुए विधानसभा स्पीकर मदन मोहन वर्मा के सामने गुहार लगाई और मामला विशेषाधिकार समिति को भेज दिया गया। समिति ने केशव सिंह सहित चार लोगों को विशेषाधिकार हनन का दोषी माना और सदन के सामने पेश होने को कहा। बाकी लोग तो सदन के सामने आए, लेकिन केशव सिंह ने यह कहकर मना कर दिया कि उनके पास गोरखपुर से आने के लिए पैसे नहीं हैं। इस बीच उन्होंने स्पीकर को चिट्ठी भेज कर कहा कि सदन में तलब कर उन्हें चेतावनी दिए जाने का फैसला ‘नादिरशाही’ है। इससे विधानसभा आग-बबूला हो गई। मुख्यमंत्री सुचेता कृपलानी ने सदन में प्रस्ताव रखा कि केशव सिंह को गिरफ्तार कर सात दिन के लिए जेल भेजा जाए, जो पारित भी हो गया।
जज के मुकदमे की सुनवाई
केशव सिंह को मार्शल गोरखपुर से गिरफ्तार करके लाए और उन्हें जेल भेज दिया गया। इसी बीच एक वकील बी. सोलेमन ने 19 मार्च 1964 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के सामने गिरफ्तारी को गलत बताते हुए याचिका दायर कर दी। केशव जेल के छह दिन काट चुके थे। सुनवाई के दौरान सरकार की ओर से कोई वकील पेश नहीं हुआ और हाईकोर्ट ने केशव सिंह को जमानत दे दी। स्पीकर ने इसे विधानसभा के अधिकार में हस्तक्षेप मानते हुए फैसला देने वाले हाईकोर्ट के दोनों जज नसीरुल्ला बेग और जीडी सहगल के साथ ही वकील बी. सोलेमन को गिरफ्तार कर सदन में पेश करने के लिए वॉरंट जारी कर दिया। दोनों जजों को यह खबर रेडियो के समाचार बुलेटिन के जरिए मिली। जजों ने अपने ही हाईकोर्ट में इस आदेश के खिलाफ याचिका दायर की। इस अभूतपूर्व घटनाक्रम में चीफ जस्टिस दुविधा में पड़ गए कि मामला सुनवाई के लिए किस बेंच के पास भेजा जाए।
आखिरकार, दोनों याची जजों को छोड़कर हाईकोर्ट के सभी 28 जजों ने एक साथ मामले की सुनवाई की। हाईकोर्ट ने स्पीकर के आदेश पर रोक लगा दी। हालांकि इस मामले लेकर हंगामे के बीच विधानसभा ने सफाई देते हुए वॉरंट रद्द कर दिया और संशोधित प्रस्ताव पास किया कि दोनों जज और वकील सदन के सामने पेश होकर अपनी स्थिति साफ करें। हाईकोर्ट ने संवैधानिक संकट को देखते हुए राष्ट्रपति से अनुरोध किया कि वे सुप्रीम कोर्ट से इस पर राय ले लें। शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में कहा कि भारत में संविधान सर्वोच्च है और उसके उपबंधों की व्याख्या का अधिकार कोर्ट को है। इसलिए वह सदन के वॉरंट की वैधता भी जांच सकता है। हाईकोर्ट के किसी फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट ही सुनवाई कर सकता है। संसदीय विशेषाधिकार नागरिकों के मूल अधिकारों के अधीन है। वैसे सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद हाईकोर्ट ने केशव सिंह की जमानत रद्द कर दी और उन्हें सजा पूरी करने का आदेश दिया।
सदन और कोर्ट के बीच खिंची तलवारें 1964 में भले ही म्यान में चली गईं, लेकिन 1983-84 में एक नए विवाद के रूप में यह टकराव फिर सामने आया। इस बार मामला फंसा आंध्र प्रदेश की विधान परिषद और सुप्रीम कोर्ट के बीच। 10 मार्च को ‘इनाडु’ अखबार में परिषद की कार्यवाही के बारे में एक खबर छपी। खबर की भाषा को आपत्तिजनक बताते हुए परिषद ने मामला विशेषाधिकार समिति को भेज दिया। समिति ने अखबार के संपादक को नोटिस भेजा। करीब 11 महीने की जद्दोजहद के बाद विशेषाधिकार समिति ने संपादक को अवमानना का दोषी ठहराया और उन्हें हिरासत में लेकर सदन में पेश करने का आदेश दिया। संपादक ने इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। चीफ जस्टिस वाई वी चंद्रचूड़ की बेंच ने यह कहते हुए गिरफ्तारी पर रोक लगा दी कि ‘परिषद ने एक छोटे से मामले को अनावश्यक गंभीरता से ले लिया है।’
क्या हो जजों की नियुक्ति का सही तरीका
सुप्रीम कोर्ट के आदेश से नाराज विधान परिषद ने इसे लोकतांत्रिक अधिकारों में दखल बताया। कोर्ट के आदेश के बाद भी परिषद ने पुलिस कमिश्नर को निर्देश दिए कि संपादक को गिरफ्तार किया जाए। आखिर मुख्यमंत्री एनटी रामाराव ने यह मामला राष्ट्रपति को इस अनुरोध के साथ रेफर कर दिया कि इसके संवैधानिक पहलुओं पर वह सुप्रीम कोर्ट से राय ले लें। लेकिन सीएम की चिट्ठी के बाद यह मामला विधान परिषद बनाम विधानसभा हो गया। परिषद ने सीएम के खिलाफ ही प्रस्ताव पारित कर दिया कि इस मामले को राष्ट्रपति को भेज उन्होंने विधान परिषद की गरिमा और शक्तियों को कम किया है। इससे नाराज होकर सत्तारूढ़ तेलुगू देशम पार्टी के विधायकों ने विधानसभा में प्रस्ताव पास कराया कि विषय को राष्ट्रपति के भेजने का मुख्यमंत्री का निर्णय बिलकुल ठीक है। राजनीतिक खींचतान के बीच कोर्ट और विधायिका का यह विवाद धीरे-धीरे ठंडे बस्ते में चला गया।