आर जगन्नाथन
एक मीडिया चैनल के फ्री स्पीच के अधिकार को बरकरार रखते हुए सरकार की आलोचना करते सुप्रीम कोर्ट के फैसले से कुछ लोगों को असंतोष हो सकता है। मामला मध्यमम ब्रॉडकास्टिंग लिमिटेड के स्वामित्व वाले मलयालम चैनल मीडिया वन से जुड़ा हुआ है जिसमें चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली दो जजों की बेंच ने चैनल के ब्रॉडकास्टिंग लाइसेंस को 4 हफ्ते के भीतर बहाल करने का आदेश दिया है।
अलग-अलग परस्परविरोधी फैसले
फैसले का निश्चित तौर पर स्वागत किया जाएगा कि शीर्ष अदालत ने मीडिया की आजादी के पक्ष में साफ-साफ बयान रखा है। फैसले में कहा गया है, ‘मीडिया चैनल को संविधान के तहत अपना विचार रखने का अधिकार है लेकिन उसके विचारों के आधार पर उसे सिक्यॉरिटी क्लियरेंस नहीं देने का अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और खासकर प्रेस फ्रीडम पर बुरा असर पड़ेगा…प्रेस की आजादी पर पाबंदी से नागरिक भी उसी तरह सोचने को मजबूर होंगे। एक ही तरह का विचार लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा पैदा करेगा।’
चूंकि अंकुश का दायरा इतना विस्तृत है कि किसी के लिए समझना आसान नहीं है कि अदालतें किस आधार पर अभिव्यक्ति पर लगी किसी बंदिश को देखेंगी कि किस केस में यह वैध हैं, किस केस में नहीं। बंदिश चाहे आम नागरिक की अभिव्यक्ति पर हो या फिर मीडिया के। असल में फ्री स्पीच से जुड़े मामलों में अदालतों के फैसले अक्सर सनक भरे लगते हैं। यहां तक कि सीजेआई की बेंच जब यह फैसला सुना रही थी तब एक दूसरी बेंच ‘हेट स्पीच’ पर सुनवाई कर रही थी बिना इस शब्द को परिभाषित किए हुए।
एक अन्य बेंच (जो अभी गठित नहीं हुई है) को राजद्रोह से जुड़े कानूनों पर विचार करना है। और कुछ पिछले फैसले भी दो तरह के हैं। 2010 में सुप्रीम कोर्ट के दो जजों पी सदाशिवम और एचएल दत्तू की बेंच (दोनों बाद में चीफ जस्टिस बने) ने इस्लाम की आलोचना करने वाली किताब पर लगे प्रतिबंध को बरकरार रखा था। बेंच ने कहा, ‘हम आपके अधिकार (फ्री स्पीच) के खिलाफ नहीं हैं। लेकिन हम सार्वजनिक हित और देश की सार्वजनिक शांति के पक्ष में ज्यादा हैं।’
कानून मायने रखना चाहिए, न कि जज के विचार
पहला पॉइंट ये है कि अगर फ्री स्पीच के उच्च सिद्धातों को अदालतें सही ठहराती हैं तो उनके फैसलों में एकरुपता, स्थायित्व होना चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि अदालत का कोई फैसला कोर सिद्धांतों के बजाय उसके बारे में किसी जज के विचारों पर आधारित हो।
सीनियर ऐडवोकेट सौरभ किरपाल जिनके नाम की सिफारिश सुप्रीम कोर्ट जज के लिए की गई है, उन्होंने एक लिटरेचर फेस्टिवल में कहा, ‘आपका केस कहां जाता है, किन दो जजों के पास जाता है, उस पर निर्भर करता है, अलग-अलग जजों के यहां नतीजा एकदम अलग हो सकता है। कुछ जजों के विचार बहुत रुढ़िवादी हैं तो कुछ के विचार लिबरल हैं। कुछ एकदम से सरकार-विरोधी हैं तो कुछ एकदम से सरकार-समर्थक हैं। सरकार सही है या गलत, ये उसके वैचारिक मान्यताओं पर निर्भर नहीं करता बल्कि ये सिर्फ उनके विचार हैं।’
फ्री स्पीच पर गाइडलाइंस जरूरी
अपने खिलाफ दर्ज सभी केसों को एक साथ क्लब करने की मांग करने वाली नूपुर शर्मा की याचिका पर सुनवाई करने वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने भी उनके मामले में पूर्वाग्रह से भरी टिप्पणियां की थीं और इन टिप्पणियों की कई रिटायर्ड जजों ने आलोचना की थी। नूपुर शर्मा का सिर कलम करने की मांग करने वाली भीड़ पर भारत में कही की भी कुछ बेंच कुछ भी नहीं कहती बल्कि सिर कलम की मांग कहीं से भी फ्री स्पीच के अधिकार के तहत बिल्कुल तार्किक नहीं मानी जानी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट को फ्री स्पीच से जुड़े मामलों को वैयक्तिक तौर पर जजों के ऊपर नहीं छोड़ना चाहिए। इससे फ्री स्पीच को लेकर विरोधाभासी फैसले ही आएंगे। यही समय है जब 7 या 9 जजों की फुल बेंच फ्री स्पीच से जुड़े सभी फैसलों की समीक्षा करे, सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट दोनों लेवल पर।
यही इकलौता रास्ता जिससे एक आम नागरिक भी समझ पाएगा कि फ्री स्पीच की असली सीमा क्या है, क्या वैधानिक है और क्या नहीं। हेट स्पीच को भी साफ-साफ परिभाषित किया जाना चाहिए और पुलिस के लिए एक स्पष्ट गाइडलाइन बननी चाहिए जिससे वे तय कर सकें कि कौन सा भाषण पब्लिक ऑर्डर के लिए खतरा है जिससे चीजें नियंत्रण के बाहर तक हो सकती हैं।
मनमाना न्याय नहीं हो सकता।