पटना। तुम्हारे बंगले के पास लोग जाते हैं तो तुम पुलिस से उनकी पिटाई करवाते हो, लोगों को तुगलक रोड स्थित बस स्टैंड पर बैठने तक नहीं देते। मत भूलो- जिन लोगों पर तुम लाठी चलवा रहे हो, उन्हीं ने तुम्हें यहां तक पहुंचाया है… उम्र के तकाजे से कांपती लेकिन रौबदार आवाज में यह सुनते ही राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव को ठंड में पसीना आ जाता है।
यह आवाज थी ‘पीरो का गांधी’ कहे जाने वाले राम इकबाल वरसी की, जिन्होंने अपने जीते-जी पेंशन नहीं ली। एक बार विधायक रहे और फिर दोबारा टिकट मिला तो चुनाव नहीं लड़े। उनके सामने लालू यादव और नीतीश कुमार तोल-मोल कर ही बात रखते थे।
10 अक्टूबर को बिहार की राजनीति और लोगों के दिलों में एक अलग स्थान बनाने वाले समाजवादी विचारधारा के नेता राम इकबाल वरसी की पुण्यतिथि है।
साल 2008 की बात है। ठंड का मौसम था। पूर्व केंद्रीय मंत्री कांति सिंह के दिल्ली स्थित आवास पर नेताओं का जमावड़ा लगा था। अवसर था पूर्व केंद्रीय मंत्री के पोते का जन्मदिन। तभी वहां उस वक्त के रेल मंत्री और राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद पहुंचते हैं। भीड़ के बीच राम इकबाल वरसी किनारे कुर्सी पर बैठे थे। लालू की नजर पड़ती है और अभिवादन करने पहुंच जाते हैं।
भइया…कैसे हैं? कंपकंपाती आवाज में उधर से ‘ठीक हूं…’ का जवाब आता है। लालू उनके बगल की कुर्सी पर बैठ जाते हैं और बातचीत करना शुरू करते हैं, लेकिन उन्होंने लालू की किसी बात का जवाब देने के बजाय सवाल दागने शुरू कर दिए।
तुम्हारे बंगले के पास लोग जाते हैं तो तुम पुलिस से उनकी पिटाई करवाते हो। लोगों को तुगलक रोड स्थित बस स्टैंड पर बैठने तक नहीं देते। जिन लोगों पर तुम लाठी चलवा रहे हो वहीं तुम्हें यहां तक पहुंचाया है।
राम इकबाल वरसी के सवालों और डांट से लालू यादव को ठंड में भी पसीने आने लगता है। तपाक से सवालों को इधर-उधर की बातों में उलझाने लगते हैं। कहते हैं- भइया आप यहीं रहते हैं, मेरे घर से गाय का दूध क्यों नहीं मंगाते? फिर लालू यादव अपने सहकर्मियों को आदेश देते हैं…भइया के लिए प्रतिदिन दूध आना चाहिए।
त्रिवेणी सिंह राम इकबाल वरसी से जुड़ा यह किस्सा सुनाते हुए हंस पड़ते हैं और कहते हैं कि उस वक्त मैं भी वहां मौजूद था। अगर इकबाल वरसी से जुड़ी बातें करने बैठेंगे तो सुबह से शाम हो जाएगी।
टिकट मिला, पर चुनाव लड़ने से कर दिया मना
लेखक त्रिवेणी सिंह बताते हैं कि साल 1969 में राम इकबाल वरसी पीरो से संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर विधायक चुने गए थे। साल 1972 में भी वह पीरो से ही चुनाव लड़े, लेकिन उनका तीसरा स्थान रहा। इसके बाद उन्होंने कोई चुनाव नहीं लड़ा।
साल 1977 में उन्हें जनता पार्टी का टिकट ऑफर किया था। जनता पार्टी का टिकट उन दिनों जीत की गारंटी माना जाता था। इसके बावजूद राम इकबाल ने चुनाव चुनाव लड़ने से साफ इनकार कर दिया था।
उनका कहना था कि एक ही व्यक्ति बार-बार चुनाव क्यों लड़ेगा? किसी और को मौका मिले। कोई और लड़े। इसके बाद राम इकबाल वरसी की जगह रघुपति गोप को टिकट मिला और वह जीते भी।
‘पीरो का गांधी’ की उपाधि किसने दी थी और क्यों दी?
त्रिवेणी सिंह बताते हैं कि राम इकबाल वरसी को राम इकबाल सिंह नाम डॉ. राम मनोहर लोहिया ने दिया था। लोहिया ऐसे नेता थे जो न तो अपनी चापलूसी सुनना चाहते थे और न ही किसी को महज खुश करने के लिए ऐसा कोई नाम देते थे।
जो लोग लोहिया को जानते रहे हैं, उन लोगों ने यह मान लिया था कि यदि लोहिया ने राम इकबाल जी को ‘पीरो का गांधी’ कहा था तो जरूर राम इकबाल जी में ऐसी कोई विशेष बात होगी।
दरअसल, जब राम इकबाल वरसी विधायक थे, तब उनके निर्वाचन क्षेत्र के कुरमुरी गांव में मकान निर्माण के दौरान जमीन को लेकर विवाद हो गया। जानकारी मिलने के बाद वह कुरमुरी गांव पहुंचे। इस दौरान वहां गुस्साएं लोगों ने उन पर कई लाठियां बरसाई, लेकिन विधायक वरसी ने गांधीवादी तरीका अपनाया। लाठियां खाने के बाद भी उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया।
बाद में किसी कार्यक्रम के दौरान समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया को इसकी जानकारी मिली। तब उन्होंने मंच से राम इकबाल वरसी को ‘पीरो का गांधी’ कहा। यह भी एक संयोग ही है कि राम इकबाल का निधन भी उसी महीने में हुआ, जिस महीने में राम मनोहर लोहिया का हुआ था। दोनों ने ही अक्टूबर में दुनिया का अलविदा कहा।
विधानसभा अध्यक्ष पर क्यों फेंका था गमछा?
इसके जवाब में त्रिवेणी सिंह हंसते हुए बताते हैं कि यह बात साल 1969 की है। राम इकबाल वरसी बिहार विधानसभा में बोल रहे थे। इस दौरान उन्हें लगा कि स्पीकर राम नारायण मंडल उनकी बातों पर ध्यान नहीं दे रहे हैं। इस पर राम इकबाल अपने गमछे को लपेटकर गोला बनाया और फिर उसे अपनी सीट पर से ही स्पीकर राम नारायण मंडल की सीट की तरफ उछाल दिया।
इसके बाद जब स्पीकर रामनारायण मंडल ने कहा कि माननीय सदस्य गमछा क्यों फेंक रहे हैं। इसपर राम इकबाल ने जवाब दिया- आपका ध्यान मेरी तरफ नहीं है तो क्या करूं। ऐसे में गमछा नहीं तो क्या जूता फेंकता।
आप पहली बार कब मिले राम इकबाल?
पीरो से पूर्व राजद उम्मीदवार रह चुके समाजवादी नेता त्रिवेणी सिंह कहते हैं, ”मैं उन कार्यकर्ताओं में शुमार रहा, जिसका राम इकबाल वरसी से आजीवन संबंध रहा। दर्जनों बार वो मेरे घर आए और एक नहीं कई-कई दिनों तक रहे। अगर दो-तीन महीने के अंदर उनसे मेरी मुलाकात नहीं होती थी तो वो खुद मेरे घर आ जाते थे। ”
आपका प्रचार करने गए और खिलाफ में वोट मांगे, वो क्या किस्सा था?
त्रिवेणी सिंह पहले हंसते हैं और फिर बताते हैं- साल 1995 की बात है। मैं समाजवादी पार्टी की टिकट पर पीरो से चुनाव लड़ रहा था। इसी सीट पर जनता दल से कांति सिंह चुनाव मैदान में उतरी थीं।
राम इकबाल वरसी हमेशा महिलाओं की बराबरी की बात करते। ऐसे में उन्होंने मेरी जगह कांति सिंह के पक्ष में प्रचार किया। इतना ही नहीं, वह मेरे घर भी कांति सिंह के पक्ष में वोट मांगने पहुंच गए थे।
उनका मानना था कि कांति सिंह महिला हैं, इसलिए उनका समर्थन किया जाना चाहिए। फिर लंबी सांस लेते और कहते हैं कि आज की राजनीति यह सब कहां ही संभव है।
राम इकबाल वरसी और उनका परिवार ने अभावों में गुजर-बसर की, लेकिन पूर्व विधायक के नाम पर सरकार की ओर से मिलने वाले पेंशन को ‘लालच का ठीकरा’ बताकर उसे लेने से साफ इनकार कर दिया। कहा कि सरकार का यह पैसा गरीबों पर खर्च किया जाना चाहिए। फाइल फोटो
मकान पर प्लास्टर देखा तो रास्ते से ही लौटने लगे…
आगे कहते हैं, साल 2005 की एक बेहद दिलचस्प घटना है। मैं पीरो से राजद का उम्मीदवार था। चुनाव के बाद राम इकबाल वरसी मेरे घर आए। एक-डेढ़ साल बाद शायद मेरे गांव आए थे। जैसे ही गांव में पहुंचे मेरा घर पक्का दिखा। वहीं से लौटने लगे तभी मुझे खबर मिली कि राम इकबाल आ रहे हैं, लेकिन बीच रास्ते से ही लौटने लगे।
इसके बाद मैं दौड़ते हुए उनके पास पहुंचा तो देखते ही सुनाने लगे। तुम धनवान हो गए क्या? तुम्हारा घर पक्का बन गया है। जब मैंने उनको पूरी बात बताई, तब घर आए।
पहले कच्चा घर था? वह कहते हैं कि पहले मेरा घर ईंट का था, लेकिन उस पर प्लास्टर नहीं हुआ था। मैंने चुनाव लड़ने से पहले ही प्लास्टर कराया गया था। उनको लगा कि जनता के पैसे से घर का प्लास्टर कराया है। वह आधुनिकता और दिखावटी राजनीति से हमेशा दूर रहे और वैसे ही कार्यकर्ताओं को भी पसंद करते थे।