मानसून ने अपने पीछे तबाही का एक जाना-पहचाना निशान छोड़ दिया है। पिछली बार जब हमने ध्यान दिया था कि जोशीमठ टूट रहा है और डूब रहा है… आठ महीने बाद, न केवल चारधाम सड़क चौड़ीकरण का काम शहर के ठीक नीचे शुरू हो गया है। हालांकि, सरकार रोकथाम का कोई उपाय लागू करने में विफल रही है, जिससे उत्तराखंड उच्च न्यायालय को मुख्य सचिव को तलब करना पड़ा है। इस बार हिमाचल में पहाड़ियां दरक गईं, शहर तबाह हो गए और नदियां उफान पर आ गईं। यानी फिर से उजागर हो गया कि सतत विकास का दावा कितना खोखला है।
बताया जा रहा है कि हिमाचल में तबाही की वजहें भी उत्तराखंड जैसी ही हैं- अंधाधुंध पर्यटन, जलविद्युत परियोजनाएं और व्यापक सड़क निर्माण, इतना कि हिमाचल सरकार ने राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के खिलाफ मामला दर्ज कर दिया है। हिमाचल में मॉनसून काल में 1,200 भूस्खलन हुए, जिन्होंने इतनी ही सड़कों को अवरुद्ध कर दिया। सड़क चौड़ीकरण शुरू होने के बाद चंडीगढ़-मनाली राजमार्ग पर सबसे बुरा असर हुआ। चारधाम वाली गलती फिर से हो गई। इन घटनाओं से यह सवाल फिर से केंद्र बिंदु में आ गया है- क्या यह विकास है? क्या हम यह दिखावा करना जारी रख सकते हैं कि जलवायु परिवर्तन केवल तापमान बढ़ने का नतीजा है? इस साल दायर एक जनहित याचिका में मांग की गई थी बहुत ज्यादा दबाव वाले पहाड़ी क्षेत्रों की वहन क्षमता का अध्ययन किया जाए। इस पर प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली एक पीठ ने संज्ञान लिया।
सुप्रीम कोर्ट ने 2021 में चारधाम सड़क चौड़ीकरण परियोजना में 80% सड़कों को 12 मीटर चौड़ा करने की अनुमति दी थी, जिससे पहाड़ों को काटने का रास्ता खुल गया था। सुप्रीम कोर्ट की ही गठित उच्चस्तरीय समिति ने बताया था कि चारधाम पहले ही अपनी वहन क्षमता तक पहुंच चुके हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस रिपोर्ट को अनदेखा कर दिया। समिति के अध्यक्ष ने भी कहा था कि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए 5.5 मीटर चौड़ी सड़क सबसे अच्छी है। उस समय तक पहाड़ काटने के कारण 200 से अधिक भूस्खलन हो चुके थे। इसके अलावा, पहाड़ काटने से निकले मलबे को नदियों में फेंका गया था, जिससे नदियों का तल ऊंचा हो गया और बाढ़ आ गई।
वो वर्ष 2021 था। अब दो साल बाद सीमा की ओर जाने वाली सीडीपी की तीनों सड़कों में से गंगोत्री की सड़क सबसे सुलभ है, जबकि बद्रीनाथ और पिथौरागढ़ की सड़कें भूस्खलन से ग्रस्त हैं और अक्सर बंद रहती हैं। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि 100 किलोमीटर लंबी गंगोत्री घाटी, जिसे 2012 में एक पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र घोषित किया गया था, एकमात्र ऐसा हिस्सा है जहां सीडीपी सड़क चौड़ीकरण अभी शुरू नहीं हुआ है। इस निर्विवाद प्रमाण से स्पष्ट है कि भूस्खलन का सड़क चौड़ीकरण से संबंध नहीं होने का दावा बिल्कुल बकवास है।
पांच साल पहले, याचिकाकर्ताओं ने अपनी जनहित याचिका में चेतावनी दी थी कि पूरे 900 किलोमीटर के रास्ते को बिना सोचे-समझे चौड़ा करना न केवल फालतू है, बल्कि इससे पूरा क्षेत्र भूस्खलन और आपदाओं के प्रति संवेदनशील हो जाएगा। इसलिए, जब यह तर्क दिया जाता है कि विकास को रोका नहीं जा सकता है, और यह कि रोकथाम के उपाय और विज्ञान पर्याप्त होंगे, तो सवाल उठता है, क्या सीडीपी की डिजाइनिंग करने वाले सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय के इंजीनियरों के एक समूह ने ही हिमालय को तबाह नहीं किया है? और क्या 2018 में एमओआरटीएच के अपने ही इंजीनियरों ने तय नहीं किया था कि 5.5 मीटर की चौड़ाई, पहाड़ी इलाकों के लिए सबसे उपयुक्त है? क्या इस सर्कुलर को इंजीनियरों ने 2020 में संशोधित नहीं किया था जिससे पहाड़ों में 12 मीटर की कटाई की अनुमति दी जा सके और चार धाम परियोजना को हरी झंडी मिल जाए?
यह सब विजन में एक मौलिक अंतर को प्रकट करता है। सरकार और जनता का लालच हिमालय को भी पर्यटकों से भरे, शोरगुल, चकाचौंध, कंक्रीट और भीड़भाड़ का शिकार बना दिया है। उन्हें दुनिया के लिए बढ़ती जलवायु परिवर्तन की चुनौती की कोई फिक्र नहीं। दूसरा विजसन एक शांत, स्थिर हिमालय, गाद से मुक्त नदियों, स्थानीय संस्कृति के संरक्षण, प्राकृतिक संसाधनों की महत्वपूर्ण भूमिका को पहचानने और अच्छे से प्रबंधित पर्यटन का हो सकता है। महत्वपूर्ण निर्णय लेने के लिए गठित समितियों में ज्यादातर नौकरशाह होते हैं। चार धाम प्रॉजेक्ट इस बात का एक उत्कृष्ट उदाहरण है कि कैसे अध्यक्ष और तीन स्वतंत्र सदस्यों ने आपसी बातचीत के जरिए ही फैसला ले लिया गया। 15 से ज्यादा प्रादेशिक अधिकारियों के मुकाबले उनका फैसला माना गया जो कितना भयावह परिणाम ला रहा है।
चार धाम परियोजना में सड़क चौड़ीकरण की अनुमति देने वाले न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ के फैसले के खिलाफ दायर रिव्यू पिटिशन लंबित है। कुछ सुधार अभी भी किए जा सकते हैं। पहले से ही हुए अतिरिक्त चौड़ीकरण का उपयोग देसी वृक्षों को लगाने और तीर्थयात्रियों के लिए फुटपाथ बनाने के लिए किया जा सकता है, जबकि बिना काटे ढलानों को बचाया जा सकता है। हम ऐसी नीतियां नहीं बना सकते हैं जो व्यवस्थित रूप से पर्यावरण को नष्ट करती हैं, फिर भी स्थायित्व की बात करती हैं। हम बड़े पैमाने पर विनाश की अनुमति नहीं दे सकते बल्कि इसकी जगह वहन क्षमता के अध्ययन का आदेश दे सकते हैं। हम अपने पैरों के नीचे की जमीन को अस्थिर करके राष्ट्रीय सुरक्षा की बात नहीं कर सकते हैं। हम हमेशा अराजकता नहीं रह सकते। ऐसा हुआ तो विकास का पीछा करते-करते विनाश को ही बुलावा देते रहेंगे।