ब्यूरो बांदा
बांदा। प्रतीक फाउंडेशन और देेवेन्द्र खरे स्मृति शोध संस्थान द्वारा हार्पर क्लब में 10 अक्टूबर को आयोप्रतीक फाउंडेशन और देेवेन्द्र खरे स्मृति शोध संस्थानजित एक कार्यक्रम में सुप्रसिद्ध कथाकार और अपने हालिया उपन्यास ‘ गांधी और सरला देवी चैधरानी ’ से चर्चा मंे आयीं अलका सरावगी को प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान दिया गया। वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना, समकालीन जनमत के प्रधान सपादक रामजी राय, आलोचना के संपादक प्रो आशुतोष कुमार, आलोचक प्रणय कृष्ण की उपस्थिति में अलका सरावगी को स्मृति चिन्ह, प्रशस्ति पत्र और सम्मान राशि के बतौर 21 हजार का चेक भंेट किया गया।
प्रतीक फाउंडेशन के अध्यक्ष मयंक खरे ने मान पत्र का वाचन किया।
कार्यक्रम तीन सत्रों में विभाजित था। पहले सत्र में कथाकार अलका सरावगी के सम्मान के बाद उनके उपन्यास ‘ गांधी और सरला देवी चैधरानी ’ पर बोलते हुए आलोचना के संपादक प्रो आशुतोष कुमार ने कहा कि अलका सरावगी की रचना यात्रा कहानी और उपन्यास में नये प्रयोगों का एक सिलसिला है। उनका यह उपन्यास, उपन्यास भी है और इतिहास भी लेकिन इसके साथ ही साथ उसका विस्तार करने वाली भी यह किताब है। इस उपन्यास में गांधी और सरला देवी एक साथ बढ़ते हुए और टूटते हुए दिखायी देते है। इसमें उपन्यास और इतिहास के बीच जिस तरह का द्वंद है उसी तरह गांधी और सरला देवी के बीच का भी द्वंद उपस्थित है। अलका सरावगी ने उपन्यास में बिना जजमेंटल हुए गांधी को मनुष्य बनने की छूट दी है। उपन्यास में एक इंसान के तौर पर महात्मा गांधी की कमजोरियों, गलतियां सामने आती हैं लेकिन इसमें मूर्तिभंजन का थ्रिल नहीं है। उपन्यास से आजादी के आंदोलन के समय सरला देवी द्वारा स्त्री की मुक्ति के लिए किए गए कार्यों विस्तार से पता चलता है और सरला रानी स्वतंत्र मना स्त्री के रूप में सामने आती हैं जो पूरी जिंदगी आजादी की खोज में लगी रहीं।
कथाकार अलका सरावगी ने अपने वक्तव्य में कहा कि बांदा में उनके उपन्यास पर जिस तरह से चर्चा हुई है उससे उनको बहुत अच्छा लगा कि उपन्यास के गंभीर पाठक मौजूद हैं। उन्होंने उपन्यास की रचना प्रक्रिया की चर्चा करते हुए कहा कि गांधी और सरला देवी चैधरानी के संबंधों पर उपन्यास लिखना एक तनी हुई रस्सी पर चलने के समान था। उपन्यास पर आ रही प्रतिक्रियाओं से लगता है कि वइ इस चुनौती का निर्वाह कर पायी हैं। उन्होंने कहा कि इतिहास उनके लिए हमेशा कथात्मक सामग्री का स्रोत रहा है। उन्होंने प्रो आशुतोष कुमार से सहमति जतायी कि इतिहास की घटनाओं का अर्थ प्रकट करने और चरित्रों के भीतर के संघर्ष से मानवीय सत्य को ढंूढ लेने का काम इतिहासकार नहीं साहित्यकार ही कर सकता है।
कार्यक्रम के दूसरे सत्र में देवेन्द्रनाथ खरे स्मृति व्याख्यानमाला के तहत ‘ न्यायबोध और साहित्य: भक्तिकाव्य से दलित विमर्श तक ’ विषय पर दलित साहित्य पर महत्वपूर्ण कार्य करने वाले आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी ने कहा कि न्याय व्यवस्था आधुनिक लोकतंत्र की देन है लेकिन भारत मे प्राचीन काल से ही न्याय का सिद्धांत चलता आ रहा है। प्राचीन संस्कृत साहित्य से लेकर भक्ति काल तक के साहित्य मे न्याय के विभिन्न रूप चित्रित हुए हैं। न्याय के दो आधार समता और स्वतन्त्रता है। भारतीय साहित्य मे जहाँ भी इन मूल्यों का रक्षण किया गया है वहाँ न्याय का पक्ष उभरता है। उन्होंने संस्कृत नाटक मृच्छकटिकम् से लेकर भक्ति काल मे कबीर, गरीबदास, रज्जबअली की कविताओं मे न्याय बोध पर विचार किया। हिंदी की प्रगतिवादी कविता के बारे मे उन्होंने कहा कि इसमें न्याय बोध वैश्विक और व्यापक संदर्भ मे आता है। वर्तमान दलित साहित्य भी न्याय की बात करता है लेकिन उनका नजरिया केवल जाति तक सीमित है, बल्कि होना यह चाहिए कि जाति के प्रश्न को समाज के अन्य सभी जरूरी सवालों के साथ जोड़ कर आधारभूत न्याय की संकल्पना को सामने लाना चाहिये।
युवा अलोचक डाॅ रामायन राम ने कहा कि भारत मे अन्याय की परंपरा आर्य कबीलों के गंगा यमुना के मैदानों मे बसने और पशुचारण से कृषक समाज के रूप मे संगठित होने के साथ होता है. आर्यों ने यहाँ वेदों के जरिये ब्राह्मणवाद और वर्णाश्रम व्यवस्था की नींव डाली. अपने से भिन्न आर्ये तर समुदायों और पूर्ववर्तियों को पराजित कर उनके विश्वासों और जीवन पद्धतियों को हेय और अवैदिक बता कर यज्ञ, हवन, बलि पर आधारित धार्मिक संस्कृति की नीव डाली . आर्यों ने जब कृषि को अपनाकर वर्ग समाज मे विभाजित होना प्रारंभ किया तब यह वर्ण व्यवस्था मानव समाज के सबसे दीर्घकालिक और बहुआयामी अन्याय के रूप मे स्थापित हुआ जो शताब्दियों की सीमाएं लांघ कर न सिर्फ जीवित है बल्कि म्युटेट् भी होता आ रहा है.
कवि एवं आलोचक ने कहा कि न्याय शब्द की उत्पति नीति से हुई है और नीति का अर्थ है शासन – प्रशासन। उन्होंने कहा कि भक्ति काल के दौरान मध्ययुग मे नये ज्ञान का मार्ग अवरुद्ध हो गया और अंध भक्ति की शुरुआत हो गई जो आज राजनैतिक और धार्मिक अंधभक्ति के रूप मे जारी है। उन्होंने कहा कि इस अंधभक्ति ने एक बंद बुद्धि वाला समाज बनाया है, जिसमें न्याय बोध धूमिल हो गया है। आज के विमर्शों में वह अंतरदृष्टि नहीं है कि वह अन्याय के खिलाफ संघर्ष कर सके। हमें अंबेडकरवाद से आगे सोचना पड़ेगा। और वर्ग के आधार पर वास्तविक न्याय की लडाई लड़नी पड़ेगी।
इस सत्र का संचालन अमिताभ खरे ने किया।
इस कार्यक्रम के संयोजक मयंक खरे द्वारा इस दौरान शहर के प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ विश्णु गुप्ता को कोरोना काल मे उनके असाधारण योगदान के लिए शाल ओढ़ाकर व प्रतीक चिन्ह देकर सम्मानित किया । उनकी प्रशस्ति में उन्होंने उनके अदम्य साहस व नागरिक सेवा के लिए किये गये कार्यों को याद किया व उनकी लंबी उम्र की कामना की।
कल बाँदा की एक अद्भुत शाम। दो ऐसी धाराओं का मिलन जिन्हें एकसाथ पाकर न सिर्फ़ कविता मुस्कुराई अपितु उसने हृदय से आशीष भी दिया कि मुझे ऐसे ही मंचों से पढ़ा जाए।
आज के दौर में हिन्दी समकालीन कविता के सबसे महत्वपूर्ण हस्ताक्षर आदरणीय नरेश सक्सेना जी की अध्यक्षता में मंच स्वयं ही एक गरिमा को प्राप्त हुआ।उनकी उपस्थिति और काव्य-पाठ ने मंच को और भी भव्य और सम्मानित कर दिया। जितनी शालीनता के साथ सभी कवियों ने काव्य-पाठ किया, उतनी ही तल्लीनता के साथ अंत तक श्रोताओं ने मन भर कर सुना भी। कविता और मंच का इससे बड़ा सौभाग्य और क्या होगा।
इस बेहतरीन आयोजन के लिए अरुण अवस्थी जी एवं उनकी टीम को हार्दिक बधाई एवं आभार
आखिरी सत्र में रात आठ बजे से कविता पाठ में वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने शिशु बारिश, कांक्रीट, गिरना, युवा कवि अदनान कफील दरवेश ने किबला, नयी सदी में हत्यारे, मेरी दुनिया के बच्चे, गमछा, मां, जूता बृजेश यादव ने अवधी के चार गीत सुनाए। लखनउ से आयीं डाॅ मालविका हरिओम ने गजल और शेर सुनाए। पंकज प्रसून ने व्यंग्य रचनाएं सुनायीं। संचालन कर रहे श्लेष गौतम ने मुक्तक, दोहे सुनाए।
कवि सम्मेलन के आयोजक अरुण कुमार अवस्थी,अरविंद उपाध्याय,वासिब जमां खाँ, नरेंद्र सिंह राजू,आदर्श तिवारी,सोनू सिंह व विनय बाबू थे।