पूर्व डिप्लोमैट अपने लेख में कहते हैं कि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि अतीक अहमद एक अपराधी था। उसके खिलाफ 100 से ज्यादा मामले दर्ज थे। लेकिन, यह पूछना भी लाजिमी है कि वह इतने लंबे समय तक कानून से कैसे बचा रहा? वे कौन सी ताकतें थीं जिन्होंने उसके आपराधिक कृत्यों का पालन-पोषण, समर्थन और यहां तक कि उसकी रक्षा की? समाजवादी पार्टी (सपा) और अपना दल पार्टी के पास इस सवाल का जवाब देने के लिए बहुत कुछ है। सपा ने उसे 2004 में लोकसभा चुनाव के लिए उम्मीदवार बनाया था। अपना दल ने माफिया को 2002 में विधायकी का चुनाव लड़ने के लिए टिकट दिया था। दोनों पार्टियों ने जानते-बूझते हुए ऐसा किया था। वे माफिया डॉन की साख के बारे में बड़ी अच्छी तरह जानते थे। लेकिन, टिकट देने का सिर्फ एक मकसद यह था कि अतीक उनकी पार्टियों के लिए वोट ला सकता था। वह निर्दलीय के रूप में भी लड़ा। लेकिन, तब भी उसे कुछ राजनीतिक दलों का गुप्त समर्थन मिला।
वह लिखते हैं कि आम नागरिक एनकाउंटर की अक्सर सराहना करते हैं। दरअसल, ये एनकाउंटर अपराध के प्रति ‘जीरो टॉलरेंस’ का मैसेज देते हुए मालूम पड़ते हैं। इनसे एक मजबूत सरकार की छवि दिखती है जो कम साधनों के बावजूद अंतिम लक्ष्य का पीछा करने के लिए संकल्पित है। इसकी एक वजह है। देश का न्यायशास्त्र इस सिद्धांत पर आधारित है कि एक निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चााहिए। फिर भले नौ अपराधी छूट जाए। इसमें स्वाभाविक रूप से अभियुक्तों को दोषी ठहराने के लिए अदालतों के समक्ष स्थायी सबूत पेश करने की जरूरत पड़ती है। यह प्रक्रिया प्रभाव वाले अपराधियों को बचने का मौका दे देती है। इसमें वकीलों की भूमिका आती है। गवाहों को धमकाना-लुभाना आता है। कानून के भीतर खामियों का फायदा उठाने की चालें आती हैं। दोष साबित होने में सालों साल लग जाते हैं। इस दौरान अपराधी या तो जमानत लेकर बाहर होता है या फिर जेल के अंदर अपनी गतिविधियों को चलाता है। यहां तक कि राज्य विधानसभा या संसद के लिए निर्वाचित भी हो जाता है। यही कारण है कि आम आदमी को लगता है कि एनकाउंटर में हत्या अपराध से निपटने का ज्यादा तेज और ज्यादा प्रभावी तरीका है। इसमें ताज्जुब भी नहीं होना चाहिए।
लेखक कहते हैं कि इस तरह के न्याय में हालांकि एक गंभीर समस्या है। अगर एनकाउंटर किलिंग और फटाटफ न्याय को वैधता मिल जाती है तो राज्य को बेगुनाहों या विरोधियों के खिलाफ बदला लेने से क्या चीज रोकेगी? जो लोग इस तरह की कार्रवाई की सराहना कर रहे हैं जब कानून की उचित प्रक्रिया का सहारा लिए बिना उनके खिलाफ ऐक्शन होगा तो उन्हें पछतावा होगा। कथित रूप से दोषी के खिलाफ ‘बुलडोजर’ जस्टिस इस ज्यादती का एक और उदाहरण है। 1970 के दशक में आपातकाल के दौरान शुरुआत में मध्यम वर्ग इसका सबसे बड़ा समर्थक था। लेकिन, जल्द ही यह एहसास हो गया कि जब अपराध और सजा के बीच कानून का राज खत्म हो जाता है तो कोई भी सुरक्षित नहीं है।
पवन कहते हैं कि पुलिस व्यवस्था को एक गंभीर बदलाव की जरूरत है। जिस सहजता से वरिष्ठ पुलिस अधिकारी भी अपने राजनीतिक आकाओं के दास बन जाते हैं और निष्पक्ष रूप से कानून को बनाए रखने के अपने कर्तव्य से मुक्त हो जाते हैं, उसने खतरनाक रूप धारण कर लिया है। भले ही कोई भी सरकार सत्ता में हो। लंबे समय से प्रतीक्षित पुलिस सुधार को तत्काल लागू करने की आवश्यकता है। उन्हें खुशी है कि अतीक की हत्या की न्यायिक जांच शुरू हो गई है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने इस संबंध में उत्तर प्रदेश सरकार को नोटिस भी जारी किया है। उम्मीद करनी चाहिए कि जांच निष्पक्ष और विश्वसनीय होगी। ऐसा नहीं होने पर नतीजे अशुभ होंगे।