राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के रूट मार्च की अनुमति न देने संबंधी तमिलनाडु सरकार की याचिका का सुप्रीम कोर्ट में खारिज होना कई मायनों में महत्वपूर्ण है। विरोधी राजनीतिक दलों, गैर-राजनीतिक संगठनों और कार्यकर्ताओं द्वारा संघ विरोधी माहौल निर्मित करने के अभियानों की रोशनी में विचार करें तो इस बात का महत्व आसानी से समझ आ जाएगा। मद्रास हाईकोर्ट ने भी तमिलनाडु सरकार के कदम को लोकतंत्र के विरुद्ध बताया था। लेकिन तब मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने हाईकोर्ट के फैसले से निकले संदेशों को ठीक से नहीं समझा। अगर वह इसे समझते तो सुप्रीम कोर्ट जाने की गलती न करते।
बहरहाल, आगे बढ़ने से पहले मद्रास हाईकोर्ट और अब सुप्रीम कोर्ट के कदम से निकली मुख्य बातों पर नजर डालना ठीक होगा।
दूसरी- तमिलनाडु सरकार का जोर इस बात पर था कि रूट मार्च से तनाव पैदा हो सकता है, लेकिन यह तर्क गलत है, तभी उसकी याचिका खारिज हुई।
तीसरी- हाईकोर्ट के फैसले और सुप्रीम कोर्ट के याचिका खारिज करने का अर्थ हुआ कि संघ का विरोध राजनीतिक दलों की अपनी संकीर्ण राजनीति का हिस्सा है।
राज्य सरकार के तर्क
आखिर तमिलनाडु सरकार ने RSS के इस मार्च पर रोक लगाने के पीछे क्या तर्क दिया था?
– सुप्रीम कोर्ट में तमिलनाडु सरकार ने कहा कि उसने शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए RSS को कुछ स्थानों पर रूट मार्च निकालने की अनुमति दी थी, लेकिन बाकी मामलों में उसे इमारत के अंदर मार्च की वैकल्पिक व्यवस्था करने का निर्देश दिया। जरा सोचिए, कोई रूट मार्च मैदान में या किसी भवन के अंदर कैसे निकाला जा सकता है? सच पूछिए तो यह कार्यक्रमों पर सीमित प्रतिबंध की ही शुरुआत थी। राज्य सरकार ने बम विस्फोटों का हवाला देते हुए कहा था कि उस जगह से रूट मार्च निकालना जोखिम भरा हो सकता है। PFI के साथ संघ के टकराव का भी जिक्र सरकार ने किया था।
– वहीं, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि तमिलनाडु सरकार ने कानून-व्यवस्था का हवाला देते हुए जो चार्ट पेश किया है, वह दिखाता है कि कई मामलों में संघ के स्वयंसेवक अपराधी के बजाय पीड़ित हैं। यह फैसले की सर्वाधिक महत्वपूर्ण टिप्पणी है।
असल में, राजनीतिक दलों के विरोध प्रदर्शन, पैदल मार्च और रैलियों से संघ के रूट मार्च की तुलना नहीं हो सकती। संघ का रूट मार्च बिल्कुल अनुशासित और व्यवस्थित होता है, जिसमें स्वयंसेवक कतारबद्ध होकर कदम से कदम मिलाकर चलते हैं। तनाव या टकराव की आशंका वहां होती है, जहां आपत्तिजनक नारे लगें या वैसी गतिविधियां हों। संघ के 98 वर्ष के जीवनकाल में ऐसी एक भी घटना नहीं हुई, जब इसके कार्यक्रम या रूट मार्च के दौरान कोई टकराव हुआ हो।
तमिलनाडु से पहले भी कई राज्यों में संघ के कार्यक्रमों को प्रतिबंधित करने के कदम उठाए गए। लेकिन हर बार अदालतों ने ऐसी कोशिशों को नाकाम कर दिया। सरकारों ने संघ को पूरी तरह प्रतिबंधित करने की भी चेष्टा की। 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के वक्त, आपातकाल के दौरान और 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद संघ पर प्रतिबंध लगा। लेकिन अदालत में संघ के खिलाफ कोई आरोप सिद्ध नहीं हुआ। सांप्रदायिक दंगों के इल्जाम भी संघ पर लगे। कुछ समय के लिए स्थानीय स्तर पर RSS की गतिविधियां प्रतिबंधित भी हुईं, मगर पुलिस प्रशासन कभी आरोपों की पुष्टि नहीं कर पाया।
इतना ही नहीं, संघ के विरुद्ध आग उगलने वाले कई नेताओं को अपना रुख बदलना पड़ा। राहुल गांधी पहले RSS को महात्मा गांधी का हत्यारा बताते थे। पिछले कुछ वर्षों से वह कहने लगे हैं कि गांधीजी को संघ की विचारधारा ने मारा। इसकी वजह यह है कि उन्हें पता चल गया है कि संघ द्वारा गांधीजी की हत्या की बात झूठ है और अदालत में उन्हें इसके लिए सजा मिल सकती है।
वैचारिक विरोध ही हो
संघ को करीब से जानने वाले जानते हैं कि वह आलोचनाओं का जवाब देने में समय नष्ट नहीं करता। वह लगातार लक्ष्य पर नजर रखते हुए सक्रिय रहता है। संघ पर यह आरोप भी लगता है कि वह बंद कमरे में काम करता है। वहीं, तमिलनाडु में उसके सार्वजनिक कार्यक्रमों को भवन या मैदान तक सीमित करने की कोशिश की गई। अच्छा हो इस मामले में हाईकोर्ट के फैसले और सुप्रीम कोर्ट के कदम से उसकी विरोधी राजनीतिक पार्टियां सबक लें। साथ ही, वे अपने विरोध को सभ्य वैचारिक विरोध तक सीमित रखें।